बांगड़ूनामा

हर उजियारे पर भारी है, एक घड़ी की परछाई- चिराग जैन

अक्टूबर 20, 2018 ओये बांगड़ू

उत्सव की आँखें भीगी हैं

एक घड़ी विपदा लाई

हर उजियारे पर भारी है

एक घड़ी की परछाई

 

कैसे वर मांगे कैकयी ने, सिंहासन से राम छिने

काया से जीवन छीना है, आशा से आयाम छिने

नगर समूचा वन जैसा है, यश वैभव वनवासी है

जिसने सबकी ख़ुशियाँ छीनी, उसके द्वार उदासी है

भोली रानी ख़ुद की करनी, ख़ुद भी मेट नहीं पाई

हर उजियारे पर भारी है, एक घड़ी की परछाई

 

एक ठहाका पांचाली का, पूरे युग पर भार बना

एक वचन ही पूरे युग की चीखों का आधार बना

पुत्र गंवाए, लाज लुटाई, घर छूटा, वनवास सहा

एक ठहाके के बदले में जीवन भर संत्रास सहा

इतने पर भी कब संभव है, उस पल की भरपाई

हर उजियारे पर भारी है, एक घड़ी की परछाई

 

एक घड़ी आवेश न आता, गणपति मानवमुख रहते

एक घड़ी अमृत न छलकता, सूरज-चाँद न दुख सहते

एक घड़ी का दम्भ न होता, वंश दशानन क्यों खोता

एक घड़ी चौसर टल जाती, युग वीरों पर क्यों रोता

ईश्वर से भी कब टल पाई, एक घड़ी दुखदाई

हर उजियारे पर भारी है, एक घड़ी की परछाई

 

© चिराग़ जैन

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