ओए न्यूज़

दो किस्म के लेबर

मई 1, 2017 ओये बांगड़ू

 लेखक अभिजीत कलाकोटी एक पाठक हैं. पहाड़ प्रेम इनमें कूट कूट के पहाड़ सा ठोस हो के भरा है. घूमने फिरने और फोटोग्राफी का शौक है मीडिया स्टूडेंट हैं और हिप्पी कल्चर वापस लाओ में भी लगे हैं.

आज मई दिवस है, लेबर्स डे, हैप्पी लेबर्स डे नहीं बोलने का, है ही नहीं हैप्पी तो क्यों कटाक्ष कसा जाये ?

घर पर दो किस्म के लेबर हुआ करते थे, नेपाली फॉरेननर्स और बिहारी इमिग्रेंट्स। क्योंकि नेपाल बॉर्डर नाजदीग पड़ता था, काफी हद्द तक भौगोलिक और सांस्कृतिक समानता होने के कारण लोग वहाँ से सपरिवार आकर बसने लगें। नेपाल के ‘डोटी’ जिले के गाँवों से आने के कारण उनको ‘डोटियाल’ भी कहा जाने लगा, पर इस शब्द वे लोग बुरा मानते है। साथ ही अंग्रेज़ो के ज़माने, मने काफी पहले से उनकी व्यापारिक क्षमता केवल सामान ढोने की ही रही हैं, जिससे उनकी एक भरोसेमंद छवि का निर्माण भी हुआ, इसी बात से अंग्रज़ों ने इन्हें खूब मूना और एक नाम और नाम भेंट में दिया- मेट (अंग्रेजी-mate)

अब कुछ नेपाली दुकानों पर काम करने के लिए रख लिए जाते थे तो बाक़ी ईंट, रोड़ी, बजरी ढोंने का काम करते। नेपाली को बिहारी से ज्यादा ईमानदार और वफादार मना जाता था इसीलिए उन्हें साथ रख कर काम दिया जाता था।

वहीं बिहारी और मैदानी क्षत्रों(देसी) से आने वाले कामगार संख्याको को भवन निर्माण जैसे कामों के लिए कुशल कारीगर माना जाता, क्योंकि पहाड़ बदल रहें हैं और पारंपरिक पाथर पाख ढालूदार घर, और साथ ही पहाड़ी कारीगरों का वजूद, जो अब शायद ही रह गया हैं, इसीलिए नए डिजाईन वाले घरों के निर्माण हेतु इन लोगों का महत्व अब कहीं ज्यादा समझा जाता हैं । पहाड़ी कारीगरों का काम उत्तम और काफी ठोस  रूप से हजम हुआ करता था और उन्हें कलात्मक निर्माण के साथ ही साथ ईट पत्थर की मजबूत नींव रखने में महारथ हासिल थी, इसिलए तो इन नए घरों से ज्यादा हमारे पुस्तैनी घर सफल रहें हैं।

देसी कारीगर कम पैसो में काम करने को भी तैयार था और सर्विस के दौरान जरुरतें भी कम थी, मने वही लॉ मेंटेनेंस कॉस्ट. वहीँ नेपाली मेट को टैम-बैटैम चाय, बीड़ी और थोड़ी भौत फसक भी ज़रूरी थी, संक्षेप- ग्रेड A मज़े भी और पैसे भी बिलकुल वक़्त पर।

अब बेचारा नेपाली मेट करें भी तो क्या करें?

घर से पास होने की ऐंठ और स्वभाव से जड़मूर्ख होने के कारण किसी की सलाह सुनता भी नहीं, और कुछ नया सीखता भी नहीं।

ऊपर से साल के एक वक़्त विषुवत संक्रांति पर अधिकतर नेपाली अपने गांव, त्यौहार मनाने चले जातें थे, और इसी के बीच लेबर की तंगी चलते देसी आदमी दुगुना कमा जाता।

खैर बातें तो बातें हैं, दिल का हाल सुने दिल वाला, सीधी सी बात ना मिर्च मसाला..

एक औसत इंसान जब रोजगारी के लिए काम करता है, तो वो कमाता हैं, जोड़ता है, बढ़ता हैं, लेकिन एक लेबर है जो वहीं का वहीं रह जाता हैं जहाँ उसकी जगह लोग मानते हैं, आमदनी-अठन्नी-खर्चा-रुपैय्या ना ज्यादा ना कम औऱ ये बात किसी न किसी रूप से हमारे समाज को चोटिल जरूर करती है।

 

 

 

1 thought on “दो किस्म के लेबर”

  1. loved this article… i didn’t knew we have such talented people in our hometown… i mean, the points he noticed about the labours is not an ordinary thing, belonging to the same place i never ever had thought about this… u have great vision… hope to see much more articles from u… u have a very bright future ahead… stay blessed and keep us updating about these unnoticed facts about the city…

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *