उत्तराखंड की वर्तमान सरकार ने जैसे ही पूर्व की रावत सरकार द्वारा शुरु किये गये हिमालय दिवस को जारी रखने की घोषणा की प्रदेशवासियों के दिमाग में एक सवाल आने लगा. सवाल था इस वर्ष का हिमालय दिवस दीन होगा कि अटल. वैसे धरातलीय प्रयासों के आधार पर दीन हिमालय सटीक बैठता है. फिर भी सरकार ने इस वर्ष न इसे दीन घोषित किया है ना अटल.
खैर सवाल यह है हिमालय दिवस मनाकर हिमालय बचेगा या हिमालय के लोगों को हिमालय में बसाकर हिमालय बचेगा. एक ही सप्ताह में सरकार पंचेश्वर को भी हरी झंडी दिखाती है और हिमालय बचाओ अभियान को भी. वैसे हो सकता है सरकार को लगता हो कि हिमालय के लोग हिमालय के लिये खतरा हैं इसलिये दोनों को हरी झंडी दिखायी गयी हो.
हिंदू रीति के अनुसार श्राद्ध माह में ब्राह्मणों को दान दिया जाना जरुरी है. ऐसे में श्राद्ध के माह में मनाया जाने वाला यह हिमालय दिवस अपने आप में महत्त्व रखता है. वर्तमान में सरकारी अफसरों और नेताओं से बड़ा ब्राह्मण इस देश में है कहां? एकतरफ पोस्टर और बैनर का गौ-ग्रास बट रहा है वहीं इलेक्ट्रानिक विज्ञापनों द्वारा मंत्रोचार भी जारी है.
सरकारी योजना और कार्यक्रम प्रभावित व्यक्ति से कितना दूर होते है उसका एक उदाहरण है हिमालय दिवस. जिस हिमालय में आज अधिकांश लोगों के जीवन पर पलायन की तलवार लटकी है आज उसे सरकारी नीतियों से खाली कराकर उन लोगों को हिमालय के संरक्षण की शिक्षा दी जा रही है. हिमालय में रहने वालों के लिये हिमालय कोई पर्वत नहीं जिस पर आये दिन कोई ना कोई चडकर नया कीर्तिमान बना देता है. ये तो शहरी चोंचले हैं.
हिमालय में रहने वालों के लिये हिमालय उनका जीवन है. हिमालय से उनका वो अटूट रिश्ता है जिसे किसी एक दिन या सप्ताह में समेटकर नहीं बताया जा सकता. उनके लिये हर दिन हिमालय दिवस है हर पल हिमालय के लिये है क्योंकि वो हिमालय से होने का नहीं हिमालय का होने का दावा करते हैं. खैर हम हिमालयी लोगों के लिये यह दिवस दीन हिमालय दिवस था, है और हमेशा रहेगा भी.