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कर्बला कथा -अध्याय 7

मोहर्रम के रोज हुसैन के दुःख को सब छाती पीट कर कम तो कर लेते हैं लेकिन इतिहास उस गम को कैसे देखता है ये बता रहे हैं हैदर रिजवी

अली अकबर के बाद हुसैन के बड़े भाई हसन का बेटा कासिम वीरगति को प्राप्त हुआ. कासिम की उम्र 16  वर्ष थी. कासिम की मौत के बाद यजीदी सेना ने गुस्से में कासिम की लाश पर घोड़े दौडाए. जब हुसैन कासिम की लाश उठाने गए तो उन्हें लाश के बजाय कासिम के शरीर के कुचले हुए टुकड़े अपनी अबा(अंगरखा) में समेट कर लाने पड़े. धीरे धीरे सूरज अपना मुंह शर्म से छुपाता जा रहा था और हुसैन के परिवार के मर्द ख़त्म होते जा रहे थे.
जब सभी शहीद हो गए और हुसैन खेमे में औरतों से विदा लेने पहुंचे तो रबाब हुसैन के छः महीने के बेटे अली असगर को गोद में लेकर आयीं और हुसैन से आग्रह किया की मौला हो सके तो एक बार यज़ीदी फ़ौज से इस बच्चे के लिए पानी मांग लें, इसकी माँ का दूध सूख चूका है और यह प्यास से बेसुध है. हुसैन ने बच्चे को गोद में उठाया और रणक्षेत्र की तरफ चले.

फौजी देख कर हैरान थे कि हुसैन अपनी अबा के दामन में क्या छुपा कर लारहे हैं, कुछ को लगा शायद कुरान लेकर आरहे हैं और अब यजीद की बय्यत कर लेंगे और हार मान लेंगे. फ़ौज के सामने आकर हुसैन ने अबा का दामन हटाया और फ़ौज से कहा “ऐ सिपाहियों तुम्हारे भी बच्चे होंगे तुम भी बाप होगे, यह बच्चा छः महीने का है २ दिन से इसके मुंह में दूध की एक बूँद नहीं गयी है, लड़ाई हमारी तुम्हारी है बच्चों का क्या कुसूर.” फ़ौज में सन्नाटा पसरा रहा.

हुसैन ने बच्चे को तपती रेत पर रख दिया और कहा कि अगर तुम्हे यह लगता है कि इस बच्चे के बहाने मैं पानी पीलूँगा तो मैं इसे छोड़कर पीछे हट जाता हूँ. तुममे से कोई भी आकर इसे पानी पिला दो. बच्चा गर्म ज़मीन पर एडियाँ रगड़ने लगा. हमीद लिखता है कि फौजी मुंह घुमाकर रोने लगे, यह देख शिम्र घबराया गया कहीं इस बच्चे को देख सेना द्रवित होकर बग़ावत न कर दे, उसने फ़ौरन हुर्मुला को हुक्म दिया की बच्चे को मार डाले.
हुसैन ने जैसे बच्चे को उठाया हुर्मुला का तीन भाल का तीर बच्चे की गर्दन काटता हुआ हुसैन के हाथ में पेवस्त हो गया. तीन भाल का तीर इसलिए लिखा क्युकी अरब में तीरों का कैटेगराइज़ेशन ऐसे ही था, एक भाल दो भाल और तीन भाल के तीर. तीन भाल के तीर तब चलाये जाते थे जब किसी शेर या हाथी जैसे बड़े जानवार को मारना हो. इसलिए बच्चे की गर्दन में तीर पेवस्त होने की बजाय गर्दन को ही अलग कर गया.
हुसैन वापस लौटे, किन्तु हिम्मत न हुई की बच्चे की मा को उसकी लाश सौंप सकें. कहते हैं हुसैन सात बार आगे बढे और सातों बार वापस लौट आये. असगर का खून अपने चेहरे पे मला, बच्चे को अपनी तलवार से रेत में एक नन्ही कब्र बनाकर दफनाया .

अली असगर को दफन करके 56 साल के हुसैन अपने घोड़े ज़ुल्जेनाह पर सवार हुए और रणक्षेत्र में उतरे. कहते हैं यजीद को हुसैन से लड़ने में यही डर था की कहीं हुसैन, अब्बास, मुस्लिम और अली अकबर एक साथ मैदान में न उतर आयें. यजीद को पता था की इन चारों को एक साथ देख सेना खुद ही डर जायेगी और वोह निश्चय ही हार जायेगा. हुसैन भी यह जानते थे किन्तु हुसैन को यह युद्ध हारना ही था, यदि हुसैन युद्ध जीत जाते तो दुनिया इसे दो राजकुमारों के बीच की जंग का नाम दे देती (जो लोग आज भी साबित करना चाहते हैं). किन्तु हुसैन ने यहाँ अपने परिवार की कुर्बानी देकर यह साबित कर दिया कि यह लड़ाई ज़ुल्म के खिलाफ और इंसानियत को जिंदा रखने के लिए है, जिसे बाद में भारत के राष्ट्रपिता गांधी तथा अन्य विदेशी बुद्धिजीवियों ने भी दुहराया.
हुसैन ने ज़बरदस्त हमले किये. जब लिख ही रहा हूँ तो आपको हुसैन की युद्धनीति भी बताता चलूँ. हुसैन की लड़ाई की खासियत यह थी, के वोह युद्ध करते समय बीच से रास्ता बनाते दुश्मन सेना के बीचो बीच घुस जाते थे, और बीच से सेना की सफाई शुरू करते थे. ऐसा करने से सेना जितनी भी विशाल हो उनको केवल १०-१५ लोगों से ही एक बार में लड़ना होता था, जो उन्हें घेरे होते और तीरंदाजों से स्वाभाविक तौर पर बचाव हो जाता था.
सेना छुपने की जगह ढूंढ रही थी और अली का बेटा हमले पर हमला किये जारहा था. यजीदी सेना को यकीन आचुका था हुसैन खुद हार मान लें तो मान लें सेना में ताक़त नहीं की वोह उन्हें हरा सके. हुसैन ने आसमान की तरफ देखा. सूरज भी आसमान में छुपने की जगह तलाश रहा था, अस्र की नमाज़ का वक़्त हो चूका था. हुसैन ने तलवार म्यान में रखी, भागी फौजें पलटी, हुसैन घोड़े से उतरे, सिपाही आगे बढे, हुसैन ने सजदे में सर रखा और आखिरी वाक्य कहा “ऐ खुदा मेरी यह छोटी सी इबादत कुबूल करना”. तीर चले, जिसको जो मिला उससे वार किया, जिनकी तलवारें छूट गयी थीं उन्होंने पत्थर मारे, हुसैन गर्म रेती पर घुटनों के बल खड़े थे. गिर इसलिए नहीं सकते थे क्युकी सारा शरीर तीरों से बिधा हुआ था , जिधर गिरते तीर शरीर को हवा में ही रोक लेते थे. सेना ने घेरा बनाया, तलवारें आगे बढीं, लेकिन सैनिकों की हिम्मत नहीं हुई हुसैन के पास जाकर उनका सर काटने की. तभी शिम्र ने खंजर उठाया और हुसैन की गर्दन को शरीर से अलग कर दिया. शिमर को कुल तेरह वार करने पड़े सर को अलग करने में, बाद में शिमर ने बताया हुसैन की गर्दन इतनी सूख चुकी थी के मेरा खंजर ही न चलता था.
और इसी के साथ करबला का वोह ऐतिहासिक युद्ध समाप्त होगया. इस युद्ध में सर काटने वाले भी मुसलमान थे और कटाने वाले भी, काटने वाले भी उसी खुदा का कलमा पढ़ते थे और कटाने वाले भी, काटने वाले भी नमाज़ी थे और कटाने वाले भी. यह एक युद्ध नहीं इस्लाम में साम्राज्यवाद, अवसरवाद और राजनीति की घुसपैठ का एलान था, जो हुसैन ने आने वाली नस्लों के लिए कर दिया था.

इससे पहले के अध्याय पढने के लिए यहाँ पढ़ें

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