रतन बाबू नाम था और गणित के प्रकांड विद्वान होते थे सच्ची वाले। । गणित की कोई ऐसी थ्योरम नहीं जो उन्होंने सुलझाई न हो। गणित के पीछे भयंकर रूप से पागल। मगर इंजीनियरिंग करने के पैसे न थे इसलिए नगर के ही महाविद्यालय से एमएससी की और पीएचडी में एडमिशन ले लिया। उनकी गणित की प्रतिभा सिर्फ उनके टीचरों और यार दोस्तों तक ही सीमित थी। क्योंकि गणित का कोई ऐसा ओलंपिक होता नहीं था जहां जाकर वह गोल्ड मेडल ले आते और ऐसा कोई बड़ा सरकारी टेस्ट उन्होंने पास नहीं किया था जिससे अडोसी पड़ोसी और जान पहचान वाले कहते कि बड़ा विद्वान है।
अक्सर जो भी मिलता यह पूछता कि क्या कर रहे हो? वह जवाब देते कि पीएचडी, पूछने वाले इससे आगे कुछ पूछता नहीं और उनके कपड़ों और जूतों पर उन्हें जज करके चलता बनता।
रतन बाबू के क्लासमेट कोई फौज में चले गए तो किसी ने चार साल की इंजीनियरिंग करके विप्रो एचसीएल इंफोसिस नौकरी शुरू कर दी। यह जब भी घर आते तो महंगे आइटम लेकर आते, घर में आकर मोटर साईकिल खरीदना तो आम बात थी, यह लोग खरीदने लगे थे कार भले ही उसे खड़ी करने की जगह न हो, लेकिन खरीदकर स्टेटस दिखाना होता है।
रतन बाबू को अक्सर ताने ही मिलते, कि बूढ़ा हो गया है अब तक कुछ न कर सका, उनकी पीएचडी की कोई वैल्यू नहीं थी। हालांकि उन्होंने जेआरएफ निकाली थी, किसी भी निजी कॉलेज में बढ़िया प्रोफेसर टाइप बनकर घूम सकते थे। लेकिन वह बस अपनी गणित और उसके थ्योरम में उलझे रहना पसंद करते थे।
रतन बाबू को एकदम मतलब समझ लो, निकम्मा टाइप समझा जाता था। उन्होंने न बैंक क्लर्क का फॉर्म भरा, न वो समूह ग का एक्साम देकर आये कभी, न उन्होंने रेलवे या एसएससी टाइप के एक्साम दिए। इन परीक्षाओं को पास करके सरकारी विभाग में क्लर्क बन जाने वाले लोगो को असली विद्वान माना जाता है, मगर रतन बाबू इनमें तो कहीं गए नहीं। पटवारी जैसा एक्साम भी भरने के लिए वह कभी लालायित नहीं दिखे।
एक समझदार पीडब्ल्यूडी से रिटायर घूसखोर सरकारी बड़े बाबू अक्सर उन्हें नसीहत देता था, “यह पढ़ पढ़ कर बूढ़ा होने से क्या फायदा जब जीवन में कभी कुछ कर ही न पाए तो”।
अब उस बूढ़े की नजर में जीवन में कुछ करने का मतलब है मकान बनाना, शादी करना, बच्चों को बढ़ा करना। यही तो जीवन है,और इसमें कुछ कर पाने का मतलब है बच्चों के लिए घूस की अच्छी रकम जमा करना।
रतन बाबू इन सबमें फेल थे। कुछ न कर पा रहे थे। पड़ोस की आंटी कहती थी कि कमबख्त ट्यूशन तक तो पढ़ाता नहीं काहे का गणित का विद्वान। मेरी बहन का बेटा बीएड करके ट्यूशन पढ़ाता है और 80 हजार रुपया कमाता है महीने का, गणित वालों के लिए कोई कमी जो क्या हो रही ट्यूशन की।
उनकी खुद की मां उन्हें देखकर मुंह बनाने लग गई थी, कि पढ़ पढ़ कर खाली दिमाग खराब कर रहा है अपना, कोई बैंक वैंक का एक्साम दे तो तेरी गणित कहीं काम भी आये।
आये दिन संगी साथियों के बच्चों को सरकारी या निजी कंपनियों में नौकरी पाता देख पिताजी का धैर्य भी टूट रहा था।
वैसे रतन बाबू जो हैं एक अद्भुत प्रयोग में शामिल थे, जिसमें शरीर की विभिन्न कोशिकाओं का अध्ययन करने के लिए बार बार खून निकालने या बार बार स्कैन करने की जरूरत नहीं पड़ने वाली थी, उनका प्रयोग एक इस तरह की गणितीय गणना पर आधारित था जिसमें अंकों के माध्यम से कोशिकीय गणना को सम्भव किया जा रहा था। इस प्रयोग के पास या फेल दोनों होने की संभावना थी।।
इस प्रोजेक्ट में उनके अलावा देश भर के बस दो और छात्र शामिल थे, एक दिल्ली से और एक दक्षिण से, उनके प्रोफेसर की सहायता से उन्हें इस प्रोजेक्ट में काम करने का मौका मिला था, एक दो विदेशी यूनिवर्सिटीज भी इसमें शामिल थी जो रिसर्च के दो फेज पूरे होने के बाद उन्हें अपने यहां बुला सकती थी और वह भी दुनिया की नजर में एक महान आदमी हो जाते।
क्योंकि फिर अडोसी पड़ोसी भी कहने लगते कि देखो उनका लड़का विदेश में है।
यह काम कितना मुश्किल था इसे बस इसे करने वाले ही जानते थे, उनके प्रोफेसर और कुछ गिनती कब लोग इस काम की गम्भीरता, इस काम की मेहनत और इस काम का भविष्य में उपयोग जानते थे। बाकियों की नजर में तो रतन बाबू निकम्मे थे जो कुछ नहीं करते थे और बुढ़ापे में भी कॉलेज जा रहे थे।
कई लोग तो कहते थे कि इसकी उम्र के लड़कों की शादी होकर दो दो बच्चे भी हो गए, लेकिन इस बूढ़े को जेएनयू वाले लोगों की तरह सरकारी पैसे में पलने का चस्का लग गया है।
उनके खुद के दोस्त फेसबुक में उनके लिए पोस्ट लिखा करते कि कुछ बूढ़े अब भी कॉलेज में बैठे हैं और जेआरफ के नाम पर सरकारी पैसा अंदर कर रहे हैं।।
रतन बाबू ने वैसे तो कभी इन बातों को कोई ध्यान नहीं दिया, लेकिन इस बार उनके पिताजी और मां ने भी कुछ इमोशनल अत्याचार कर दिया, ऊपर से प्रयोग में लगातार 20 वीं बार असफलता ने मानसिक रूप से बहुत कमजोर कर दिया।
रतन बाबू ने बस मां बाप का मुंह बंद करवाने के लिए एक कोचिंग इंस्टीयूट में पढ़ाना स्वीकार कर लिया। जिंदगी में पहली बार गणित का ट्यूशन पढ़ाने के लिए रतन बाबू ने बीएससी और एमएससी की क्लासों के बच्चों को चुना।
छोटी क्लासों को पढ़ाने के लिए ढेर सारे गणित के टीचर थे, मगर हायर एजुकेशन में एक भी टीचर नहीं था।
रतन बाबू की निजी कोचिंग में एंट्री हुई थी सिर्फ दिन के 4 घण्टे के लिए 2 घण्टे सुबह, दो घण्टे शाम। कोचिंग इंस्टीयूट का मालिक उन्हें एक तनख्वाह के रूप में कुछ पैसे देता था।
धीरे धीरे 6 महीने के अंदर वह सुबह से शाम तक 12 13 घण्टे पढ़ाने लगे।
कॉलेज के बच्चों के अलावा इंटर हाईस्कूल के बच्चे भी आने लगे। रतन बाबू पर नोटों की बारिश होने लगी। उन्होंने खुद का कोचिंग इंस्टीयूट खोल लिया। बढ़िया मकान खरीद लिया, कारें खरीद ली।
अब वह लायक बच्चों वाली लाइन में हो गए थे, शादी हुई, दो साल के अंदर अद्भुत शिक्षक के रूप में जगह जगह पोस्टर चिपके थे उनके नगर में। 4 से 6 लाख रुपया महीना कमा रहे थे। गणित अच्छी बिक रही थी।
और पीएचडी छोड़ चुके थे, प्रयोग बन्द कर दिया गया था, पीडब्ल्यूडी वाले अंकल कहते थे शाबाश बेटा, अब तू सही लाइन पर आया है, अच्छा किया मेरी बात मानकर। पड़ोस की आंटी कहती कि उनके बेटे को रतन बाबू ने सिर्फ एक महीना पढ़ाकर आईआईटी निकलवा दिया।
वह कोशिका वाला अद्भुत प्रयोग अब भी चल ही रह है, कोई और पागल उसके पीछे लगा है। रतन बाबू अब सरकारी पैसा खाने वाले दामाद नहीं रहे, वह कोचिंग के जरिये पैसा कमा रहे हैं मेहनत करके खुद का।
रतन बाबू अब जेएनयू वाले देशद्रोही नहीं रहे, अब वह सच वाले गणित के विद्वान हैं, उनके पोस्टर उनके यार दोस्त शेयर करते हैं फेसबुक पर। अब वह गणित के प्रकांड विद्वान माने जाते हैं।
#रतनबाबूगणितज्ञ