समुद्र की लहरों के बीच में कलम चलाने वाले दिग्विजय सिंह चौहान की ये कविता ‘माँ ‘ , माँ पर लिखी गयी बहुत सारी कविताओं से क्यों अलग है ? क्योंकि इसमें माँ को सुपरमैन ना बनाकर एक आम इंसान के रूप में चित्रित किया है. इसे पढ़िए और अंतर खुद जान जाइये
प्यार दुलार अपनापन
हम पर वो बांटती है,
दिल के टुकड़े हैं हम उसके
पर गलत काम पर डाँटती है।
खुद बारिश में भीगती है
और हमें अपने आँचल में छुपा लेती है,
कड़ी धूप में झुलसना पड़े फिर भी
हमारी मुस्कान को अपना बना लेती है।
जब भी घर से निकलता हूँ कहकर की माँ अभी आता हूँ ,
मेरी वापसी का इंतज़ार तेरी आखों की उदासी से समझ जाता हूँ।
तू भोली है सच्ची है,
सबसे अच्छी है,
मेरी तोतली भाषा में बोलती,
प्यारी सी एक बच्ची है।
इस बेजान शरीर की तू ही आत्मा है,
तू ही एक सत्य है तू ही परमात्मा है।
सारा संसार अपने अंदर समाये रहती है,
हर कठिनाई का उत्तर उसकी मुस्कान कहती है।
तेरा आचरण सरल , जीवन साधारण है ,
तू कर्मबद्ध तत्पर अविरल मेरा आवरण है।
तेरे चरणों में स्वर्ग और आशीर्वाद से सफलता है,
लक्षप्राप्ति से ज़्यादा सुख तेरी शाबाशी से मिलता है।
शाब्दिक अभिव्यक्ति में असीमित है तेरा गुणगान ,
ग्रन्थ, बाइबिल तू ही , तू ही गीता और तू है कुरान ।
निःशब्द हूँ तेरा ये त्याग और बलिदान देखकर ,
कोई क्यों किसी के लिए इतने दुःख सहता है।
सादर प्रणाम उस ममता की मूरत को,
इसीलिए तो मैं ही नहीं सारा जहाँ उसे “माँ” कहता है। “