लेखक परिचय – विनोद पन्त जी कुमाउनी के कवि हुए, लेकिन व्यंग्य और संस्मरण में भी इनका गजब ही हाथ हुआ।
हरिद्वार इनका निवास स्थान है लेकिन दिल खंतोली(बागेश्वर) में बसने वाला हुआ। इसी दिल के चक्कर में पहाड़ की एसी एसी नराई(यादें) ले आते हैं कि पढ़ कर आप भी वहाँ को याद करने लगो।
गजब का जमाना हुवा हमारा भी। जब हम जवान हुए तो हमारी जवानी ने भी कुलांचें मारी पर हम उडते नही थे। समाज का डर हमारे पंख काट देता था। पर जवानी तो दिवानी हुई । बन्धनों में भी जो हो सकता था किया हमने । शादी से पहले तो हमारा प्यार एकतरफा ही हुवा ताका झांकी तक शादी के बाद सारा बचा हुवा प्यार दबे कुचले अरमान बीबी पर उडेल देने ठहरे ।
पर बीबियां भी आजकल की जैसी जो क्या हुई वो भी शर्मो हया वाली लजाने शरमाने वाली। हमने गांव पहाड से थोडा शहर देख लिया होता था। कुछ पिक्चरें देखकर हीरो हीरोईनी का प्यार देखा होता था। सरिता वगैरह पत्रिका में रोमांटिक कहानिया पढकर हमने भी कुछ देस वाला रोमांस सीखा होता था। छुट्टी पर घर आकर हम उसे बीबी पर एप्लाई करते पर वो गांव की गोरी जैसा हम चाहते वो रिस्पांस कहां मिलता । हम चाहते बीबी जया प्रदा या श्रीदेवी की तरह पेश आये फिल्मी रोमांस करे पर दिन भर खेतों में गोबर सार कर जंगल से लकडी लाकर, भीतर लाल मिट्टी से लीपकर, ओखल कूटकर थककर चूर बीबी जिसने कभी पिक्चर तो क्या टीवी तक न देखा हो वो फिल्मी प्यार करे भी तो कैसे। कभी हम सिखाने की कोशिस भी करते तो ओच्छ्याट मत करो शरम नी लगती बोलकर हमारे अरमानोॆ में धारे का ठंडा पानी डाल देती। पर हम तब भी हार नही मानते थे।
हम जब नौकरी से घर आते तो बीबी को रोमांस सिखाने के लिए दिल्ली आनन्द विहार या हल्द्वानी के स्टेशन से कुछ बी या सी ग्रेड की पत्रिकाए अटैची के सबसे नीचे बिछाकर लाते और घरवाली को पढने को कहते पर वो बेचारी सस्कारी जिसके लिए अब तक ये बाते प्रतिवन्धित हो उसकी अन्तर्आत्मा उसे कैसे पढे ? वो कई बार उसे चुपके से फाडकर गोबर के खात में दबाकर आ जाती ताकि चुरकुट भी न देख पाय कोई। मतलब तब प्यार रोमांस में ऐसी चीजें गैरकानूनी थी।
हम तब उनके लिए कुछ अन्त:वस्त्र भी लाते। हम भले ही शहर का माहोल देख चुके थे और खुद को माडर्न भी समझने लगे थे फिर भी इनकी खरीददारी हमारे लिए अवैध असलहा खरीदने जैसी होती थी। हम बाजार की उस दुकान को ढूढते जहां कोई ग्राहक न हो दुकानदार बुजुर्ग न हो। और डरते डरते मांगते कई बार थूक गले में अटक जाता। अगर बीच में अन्य ग्राहक टपक पडे तो हम निगाह नीची कर लेते। समय ही ऐसा था हम बाहर से माडर्न बनते पर थे तो अन्दर से गांव के ही ।
जब हम पत्नी को लाकर देते तो वो ये कहकर हमारी सारी मेहनत पर पानी फेर देती कि क्यों लाये परसों ही तो मेले से लाई हूं , मेरे पास हैं वगैरह वगैरह। मतलब गिफ्ट देने वाली की भावना देखी जाती है वाली फार्मेलिटी पति पत्नी के बीच तब ना के बराबर होती। हम एक हफ्ते की छुट्टी आये होते थे। दो तीन दिन सफर के होते एक दो रातें तो बेचारी बीबी की शिकवा शिकायतों में निकल जाती । कमजोर हो गये हो खाना ठीक से नही खाते , जाग पर हो कभी बाजार से नकि भलि चीज खा लिया करो , इतना कमाया क्या हुवा थोडा अपना ध्यान रखो। हालाकि प्राइवेट नौकरी में घर का खाना मिले वही गनीमत बाजार का कहां से नसीब हो। फि नाराजगी होती चिठ्ठी बराबर न भेजने की। आठ महिने हो गये चार पांच ही चिठ्ठी भेजी मैं रोज डाकखाने की तरफ देखती थी। फिर आस पडौस के लोगों की काटणी भी होती थी। वो रनकौर मेरी तरफ ऐसे देखता था। कभी अन्ट सन्ट भी बोलता था। फलानी काखी मेरी घात तुम्हारी ईजा से कहती थी। तुम्हारी मां ने घुघुतिये पर मैत नही जाने दिया।
सिबौ मेरा भाई बुलाने आया था डाड मारते हुए गया तीन दिन तक मेरे भी गले कुछ नही गया। इस साल सिमार वाले खेत में धान कम हुए तीन महिने से कन्टोल में चीनी नही आयी , मटीतेल नही मिल रहा। भैंस बैल ही रह गया इस बार , मेरे कमर में लग गयी थी खडिक के बोट से गिर गयी तब से चसक रहती है अगली बार आओगे तो बाम ला देना। ये थी साहब हमारे रोमांस के दौरान की गयी बातों की कुछ बानगी। फिर हमसे अपने साथ मायके ले जाने और वहां चार दिन रुकने का वादा यहीं ले लिया जाता था। हमारी एक तरफ कुंआँ दूसरी तरफ खाई हो जाती। चार दिन तो बरबाद हो जाऐगे। क्योकि इसके मायके में मिलन का मौका ही नही मिलेगा। मना कर नही सकते अगर ना ले गये तो पता नहीॆ ईजा बाबू इसको फिर कब भेजेगे। पहाड के युवा की तब एक बात होती थी उसकी शादी को एक साल हुवा हो या सात साल उसका छुट्टी पर आने के बाद हर मिलन सुहागरात ही होता था। निजी पल मिलना पति पत्नी के लिए बहुत कम होता था। दिल बेचारा क्या करे बीबी नौले गयी हो तो आँखे नौले की तरफ खेत में गुडाई करने गयी हो तो दोपहर का इन्तजार , जंगल गयी हो तो शाम होने का इन्तजार , घास काटने गयी हो तो घास की डलिया भर जाने की कामना होती थी। लोग कहते हैं इश्क में दिन तो कट जाती हैं पर रातें नही कटती , यकीन करना हमारे दिन मुश्किल से कटते रात का इन्तजार रहता कब मिलें और ढेर सारी बातें करें। शादी के बाद वाला ये इश्क और इसकी बेचैनी आजकल के सोना बाबू महसूस कर ही नहीं सकते।
ऐसा प्यार लैला मजनू सीरी फरहाद के अब्बा को भी नसीब नही हुवा होगा। जब छुट्टियां खतम होने को होती तो दो दिन पहले ही प्राण सूख जाते , एक दूसरे की सूरत देखते दोनो मुरझाये से होते , तब बातें आँखों में ही होती क्योकि अगर बोल पडे तो भावनाओ का ज्वार फट जाये और आँखो से सैलाब फूट पडे। दूसरा दुखी न हो इसलिए सारे आंसू पीने पडते थे पर चेहरे तो पडौस की आमाओ की तरह होते हैं भीतर की बातें बाहर ले ही आते थे शिकायत कर ही देते । जैसे ही छुट्टी मिलेगी जल्दी आउगा कहकर मनबहलाव की कोशिस होती।
सच कह रहा हूं जब रोमांस के पल होते थे तब बीबी से आने वाली पसीने की गंध , गोबर की बास हमें जरा भी विचलित नही करती थी हमें गर्व होता था कि ये तो उसके मेहनत और कर्मठता की खुशबू है . ये की सेन्ट छाप जोडियां नहीं समझ पाऐगी। ये हमारे पहाड की नारी की पहाड को आबाद रखने पहाड का सीना चीरने का सर्टीफिकेट होती थी । मुझे नही लगता शादी के बाद साथ हमेशा रहने वाले गांव के जोडे शायद ही ये सब समझ पायें । उन्हे ये सब मजाक लगेगा। पर प्यार रोमास तो यही हुवा ।