आज-कल दीवाली और छठ पर्व के अवसर पर पूर्वांचल की ओर जाने वाली हर रेलगाड़ियाँ कराह रही है। रेल गाड़ियां रो-रो के अपना दर्द बयां कर रही है। बेचारी चीखते हुए कह रही है कि ‘हमको बक्श दो भैया, हम माल गाड़ी नहीं हूँ’ पर उसकी सुने कौन?
आखिर रेलवे मे ई दर्द सुनने के लिए कौनो नियुक्ति थोड़बे न होता है। हियाँ तो टिकट कटता रहता है, ट्रेने चीखती रहती है, यात्री मरता रहता है। परंतु सरकार को क्या? ऊ तो कान मे तूर आ तेल डाल के सुतले रहेगा।
देखो भय… सरकार चाहे किसी का हो, मंत्री चाहे कोई भी हो, परंतु हालात वहीँ का वहीँ रहेगा.. हाँ। इस मौके पर हर बार कई घायल होते हैं, कितनो का तो समनमे लुट जाता है, परंतु इस पर कोई बात करने के लिए राजी नहीं होता।
ऐसे मे सवाल ई है कि, क्या राजनीति को दरकिनार कर के जरुरत के हिसाब से रेल बजट नहीं तैयार किया जा सकता? क्या पूर्वांचल जाने वाली भीड़ को समय रहते एक सही दिशा नहीं दिया जा सकता?