कद अमिताभ बच्चन सा, उमर सलमान खान की, आंखे अजय देवगन सी, कमर रेखा से आधा इंच ज्यादा लेकिन अंदाज विनोद पंत का. फिर वो लिखने का हो या बोलने का विनोद पंत “विनोद पंत” हैं. आजकल के लेखकों का लिखा मोबाईल में कैद रहता है पर विनोद पंत का लिखा दिल और दिमाग दोनों में कैद रहता है. उत्तराखण्ड का दुर्भाग्य कहिये या फिर कुमांउनी के रचनाकारों की महानता कि इनका लिखा पढा तो सब जानते हैं लेकिन शक्ल से इन्हें कम लोग जानते हैं. इससे पहले की आप गजबजी जायें ,मैं आपको विनोद पंत का लिखा कुछ बताता हूँ जिससे आप जान जायेंगे कि हमारी आज की बातचीत का अंश किस खतरनाक पहाड़ी पर आधारित है.
परुलि तेरे प्यार में रड गये हम कच्यार में
तुझे देख कर अलजि गया
भली के मैं पगली गया
तेरा रास्ता देख रहा हु बांजणि के धार में
परुलि तेरे प्यार में रड गये हम कच्यार में…
विनोद पंत को मैं खतरनाक पहाड़ी इसलिए कहता हूँ क्योंकि जिस हास्य को उत्तपन्न करना विश्व में किसी के लिये भी सबसे कठिन कार्य है वो विनोद पंत के लिये खेल है. अब परुलि तेरे प्यार में कविता को ही ले लिजिए. सूत्रानूसार यह कविता विनोद पंत के बाल्याकाल के प्यार में रडिने की घटना पर लिखी गयी है, एक प्रकार से पहले प्यार पर आधारित कविता. पहले प्यार के विषय में विश्व स्तरी मान्यता यह है कि इसके बाद आदमी या औरत बौली जाता है और कुछ मनहूस सा रच देता है. लेकिन इस विश्व स्तरीय मान्यता के विपरीत विनोद पंत इसमे हास्य खोज लाते हैं. ये विनोद पंत का ही कमाल है कि किसी के असफल प्रेम ओर उसके गिरने जैसी घटना पर आप न केवल मुस्कुराते हैं बल्कि रन-फनि के (लोट-पोट) ठहाके भी लगाते हैं.
विनोद पंत के जीवन की शुरुआत खंतोली नाम के छोटे से गांव से होती है. परिवार में सबसे छोटा होने के कारण ईजा और जेठजा ( ताईजी ) की पूछोड़ के रुप में ही विनोद पंत का बाल्यकाल गुजरा. विनोद पंत के साहित्य में उनके इस पूछोड़काल की झलक आपको हमेशा दिख जायेगी. विनोद पंत अपनी रचनाओं में नारी की ठेठ पहाड़ी खुशबू का राज अपनी ईजा ओर जेठजा को ही मानते हैं.
जैसा की हमारे यहाँ परिवार के सबसे छोटे बच्चों के लिये प्रतिभा का पहला मंच होली का स्वांग (एक प्रकार से किसी की मिमिक्री ) होता है. दरसल परिवार में छोटे होने के कारण इन्हे अतिरिक्त दुलार मिलता है जिसकी भरपाई रामलीला व मेले जैसे मंच न मिलने से होती है. विनोद पंत का पहला मंच भी होली ही रहा. घर में बाबू (पिता) की नकल उतारने वाले विनोद पंत ने अपना पहला स्वांग ही बाबू का कर दिया. पिता इतने प्रभावित के बेटे की हास्य के प्रति रुचि को देख अखबारों से चुटकुलों की कटिंग जमा कर बेटे को भेंट करने लगे.
दुनिया में अधिकांश स्थानों पर विवाह के बाद लड़की की विदाई होती है. हमारे पहाड़ की खासियत यह है कि यहाँ एक उम्र के बाद लड़के की विदाई होती है. विदाई की खास बात यह है कि विदाई से पहले पूरे परिवार की मौजूदगी में पहले से पहाड़ से बाहर रह रहे रिश्तेदारों में एक तीर छोड़ा जाता है. देश-काल-परिस्थिति अनुसार तीर जहां भिड़ा लड़के की एकल बारात उसी ओर निकल पड़ती है. विनोद पंत की एकल बारात निकली राजस्थान. वही से अजमेर विश्वविद्यालय में हिंदी से विनोद पंत ने उच्च शिक्षा प्राप्त की.
अजमेर विश्वविद्यालय आने से पहले विनोद पंत अपने ही गांव के भास्कर पंत का साथ प्राप्त कर चुके थे. जिन्होने ईजा और जेठजा की इस कच्ची इमारत को मजबूत नींव प्रदान कर दी थी. विश्वविद्यालय में जगदीश सागर नाम के एक सीनियर ने विनोद पंत को लिखते रहने हेतु प्रोत्साहित किया. विनोद पंत कागज पर उतरी अपनी पहली कृति राजीव गांधी की मृत्यु पर लिखी कविता बताते हैं.
हमारे कस्बों की एक विशेषता यह है कि गांव से दो दिन इसमे बिताने के बाद आदमी अपनी टूटी-फ़ूटी घचक हिंदी में कहने लगता है कि पहाड़ी नि आने वाली ठैरी. बाबू ने बाहर ही नौकरी की तो गांव में भी हमने जो फसक हांड़ी हिंदी में ही हांड़ी. विनोद पंत 1993 में किसी कस्बे में नहीं बल्कि हरिद्वार नाम के शहर में आ चुके थे. इसके बावजूद विनोद पंत के भीतर का पहाड जस का तस जिंदा है. विनोद पंत ने अपने व्यंग्य डोइ पाण्डे ज्यू क ब्या के माध्यम से इस पर लिखा भी है.
वो कहते हैं ना कि जिसका बेटा शहर गया फिर शहर का ही हो जाता है लेकिन विनोद पंत शहर जा कर भी गांव का ही बेटा रहा. लोग भले कहते हो कि पहाड़ के लोगों को पहले मैदान भाता है और फिर खाता है. लेकिन विनोद पंत के संबंध में यह बात गलत साबित होती है. जितना समय गांव से बाहर रहे उतना अपनी भाषा संस्कृति के लिये लगाव बढ़ता गया.
हिंदी में तुलसी और कुमांउनी में शेरदा अनपढ के जबर फैन विनोद पंत अपनी व्यंग्य की भाषा कुमाउनी चुनने के सवाल पर जवाब देते हैं कि कोई व्यंग्य तब जाकर बेहतरीन होता है जब उसे उसी में उतारा जाय जिसमें की उसे सोचा गया हो. दूसरा कुमांउनी जैसी समृध्दता हिंदी में मौजूद नहीं है. उदाहरण स्वरुप अगर आपको हिंदी में अक्ल का दुश्मन लिखना हो तो आपके पास विकल्पों की कमी रहती है वहीं अगर आपको इसी बात को कुमांउनी में लिखना हो तो आप इसे तै अक्ल में बजर पड रि, तै अकल में ढूंग पड रो, तै अकल आग लाग रै, तै अकल द्यो छूट ज, आदि के रुप में लिख सकते हैं. जिस कुमांउनी की विविधता को हमारा शिक्षित वर्ग भाषा की बाधा समझता है उसे विनोद पंत ने कुमांउनी की विशालता के रुप में देखा है यही विनोद पंत को अन्य से अलग करता है.
विनोद पंत आज के युवा में कुमांउनी के प्रति फिर से लगाव उत्पन्न करने में सफल रहे हैं क्योंकि उनका यह प्रयास ईमानदार है. उनकी ईमानदारी उनके बच्चों में झलकती है. एक ऐसे दौर में जहां बड़े गर्व भाव से कहा जाता है पहाड़ी समझ आती है बोलनी नहीं आती है के बीच विनोद पंत के बच्चे न केवल पहाड़ी गानों पर थिरकते हैं बल्कि गर्व से पहाड़ी में बोलते भी हैं.
विनोद पंत अपने परिवार को अपना पहला श्रोता ओर समीक्षक मानते हैं. अपनी किसी भी रचना में सुधार की गुंजाइश विनोद पंत अपने परिवार के सदस्यों की मुस्कुराहट और हंसी में तलाशते हैं. यही कारण है कि हास्य कवि और व्यंगकार विनोद पंत की रचना लोगों को इतनी पसंद आती है. समसामायिक विषयों पर लिखी उनकी हालिया कविता हे दालाधिराज (दालो के बडते दाम पर), कसिके मिलिला मैंके भोट (राहुल गांधी पर) रही हैं.
अधिकांश कुमाऊंनी साहित्यकार की तरह विनोद पंत के व्यंग्य भी हमेशा चोरी के शिकार हुए हैं. शायद विनोद पंत उत्तराखंड के वो साहित्यकार हैं जिनकी सर्वाधिक रचनाए चोरी हुई हैं. अमड़की खुट, डोई का ब्या, परुलि तेरे प्यार में जैसी अनेक रचनाए हमारे मोबाइलों में कैद हैं जिसे न जाने किस-किसने बिना रचनाकार को श्रेय दिये बिना ही अपने-अपने नाम कर दिया है. इस समस्या पर भी विनोद पंत चोरों को धन्यवाद ही देते हैं और कहते हैं जब उन्हे भी पसंद आया होगा तो ही चोरी किया होगा ना.
खुद को कुछ भी न मानने वाले विनोद पंत दरसल युवा कुमाऊंनी व्यंग्यकार का पुरुस्कार पा चुके हैं. विनोद पंत उन सौभाग्यशाली लोगो में हैं जो पच्चीस साल पहाड से बाहर रहने के बावजूद अपने भीतर आज भी पहाड़ जिंदा रखते हैं.
जल्द ही विनोद पंत का एक व्यंग्य संग्रह हम सबके सामने आने वाला है. ओए बांगडू की ओर से विनोद पंत को शुभकामनाएं.
एक एक शब्द में सच रोप रखा है आपने….
विनोद दा की रचनाएं मैंने जब भी जिसको भी सुनाई हैं… वो दीवाना हो गया है विनोद दा का….
व्यंग्य संग्रह के इंतज़ार में
हम बैठे हैं भकार में
हम विनोद जी की रचनाएं कहां पड़। सकते हैं
आहा आज पढ़ा हो! हमारी तो शान ठैरे विनोद जी…लिखते रहिये,पहाड़ सबके दिलों में बसाते रहिये, माट, कच्यार, दोहर, मोहाव सब इस्तेमाल करते रहिए।
डोई को तरदा भी नहीं छोड़ते थे उसकी ममता अब आपने ढूढ़नी ठैरी हो..ख़ूब शुभकामनाएं।