कोई भी सफ़र अपने साथ खूब सारा रोमांच ले कर आता है और ढेर सारी यादे दे जाता है. विनीत फुलारा का यूपी का सफरनामा भी कुछ ऐसा ही रहा जिस में बहुत सारे अनुभव हुवे। कई भ्रम दूर हुवे। आप भी पढ़िए इस शानदार सफ़र का आखिरी भाग
मथुरा से होकर पलवल और फिर फरीदाबाद होते हुवे दिल्ली में प्रवेश कर गए। इस पूरी यात्रा मैं गूगल दाज्यू (गूगल मैप)का बहुत बड़ा मार्गदर्शन रहा। वो केवल दिल्ली आउटर से फतेहपुरी बल्लीमारान तक पहुंचाने में ही काम नहीं आया बल्कि मध्यप्रदेश और यू पी में भी काम आया. कभी कभी जब ये गूगल मैप गजबजी जाता था तो हमें कस्बों के अंदर की छोटी-छोटी गलियों के टेढ़े मेढ़े रास्तों से घुमाते फिराते शॉर्टस्ट रुट लेकर फिर से मेन हाइवे से मिला देता था।
रात में दिल्ली में फतेहपुरी मस्जिद के पास कमरा लेकर रुके और सुबह तीन बजे हल्द्वानी को चल दिए। रामपुर से रुद्रपुर तक रास्ता बहुत ही ज्यादा खराब हुआ पडा है। और शायद इतनी पूरी यात्रा में अभी तक की सबसे बुरी हालत सड़क की यहीं पर थी। हमने इन बीते दिनों में रोज का सफर लगभग सुबह 4 बजे से शुरू किया। यूपी में सुबह 5 से 7 बजे तक हाइवे दिशा शौच करने वालों से गुलजार रहता था, विद्या बालन का जहां सोच वहाँ शौचालय वाला विज्ञापन वहाँ पर ज्यादा चलाने की आवश्यकता है। मोदी जी के स्वच्छता मिशन कार्यक्रम की पहुँच उस तरफ को पूरी तरह से नहीं पहुँच पायी ऐसा लगता है। लेकिन उत्तराखंड में पहाडी कस्बों पर ऐसा कम ही दिखाई देता है या शायद उस तरफ को इतने तड़के सफर में कभी निकला ही नहीं।
इस यात्रा ने मन में बसी इस भ्रांति को दूर किया कि “यूपी है भय्या ये”…बहुत सरल, सहज और मददगार लोग मिले।
बीच में जब हम वाराणसी पहुंचे थे तब शहर में प्रवेश करते ही एक व्यस्त चौराहे पर कैंट रेलवे स्टेशन के पास रोड पर चलते हुवे बगल से एक स्कूटी निकली और उस पर बैठे लगभग पेंतालिस पचास वर्षीय सज्जन ने हमें आश्चर्य और प्रशंसा की नजर से देखकर चलते चलते कहा “उत्तराखंड से बाइक से आये हो? वैरी नाइस। किस जगह से हो? अच्छा नैनीताल? वैरी गुड़।” मैंने पूछा “सर यहां पर सस्ता कमरा कहाँ पर मिलेगा जहां पर रुक कर हम कम समय में शहर घूम पाए?” उन्होंने कहा साइड लगाओ, फिर हमें डायरेक्शन बताया। बोले आप लोग स्टूडेंट हो? मैंने बताया मेरा ऑप्टिकल्स का काम है भीमताल में, और वो रास्ता बता कर चले गए। खैर, हम वापस हल्द्वानी पहुँच गये और सुबह 9 बजे हल्द्वानी पहुंचकर मैं 10 बजे अपने कार्यक्षेत्र पर पहुँच गया। अगले दिन शाम को मेरे पास एक फोन आया। बोले मैं वाराणसी से बोल रहा हूँ, आप वो बुलेट वाले भाईसाहब बोल रहे हैं? जी मैं बोल रहा हूँ। मेरे कहने पर उन्होंने बताया कि “मैं वही स्कूटी वाला बोल रहा हूँ उस दिन आपको रास्ता बताने के बाद घर पहुंचा तो बहुत अपराधबोध सा हुवा की मेने आप लोग को अपने गेस्ट हाउस में क्यों नही ठहरा दिया। मैं वापस उसी जगह पर आया जहां पर छोड़ा था, लेकिन आप जा चुके थे, मैंने कई होटलों में पता किया दो लोग बुलेट वाले पर आप लोग जा चुके थे”। मैंने उनसे पूछा आपको मेरा नम्बर कैसे मिला तो उन्होंने बताया उन्हें भी गूगल दाज्यू ने हेल्प की। एक मिनट की बातचीत में उन्होंने ये याद रखा की चश्मा और भीमताल। फिर उन्होंने जस्ट-डायल डॉट कॉम पर और गूगल पर ये सर्च किया तो उन्हें मेरी शॉप का नम्बर मिल गया, उन्हें मेरा नाम नही मालूम था। वो विनय दयाल जी थे। बोले इस बार तो ऐसा ही रहा अगली बार कभी इस तरफ आना हो पाए तो हम हैं यहां।
वाकई में ये इंक्रेडिबल इंडिया ही है। ताज्जुब हुआ मुझे। चमत्कार सा लगा सब। हमारी इस देवभूमि में कितने लोग आते हैं बाहर से हम किस से इतने सहृदय होकर मिल पाते हैं या याद रख पाते है, हम किस से इतने अदब से पेश आते है,अंदर झाँकने को मजबूर कर दिया इन साहब ने। हमारा कैसा व्यवहार होता है उन मेहमानों के साथ जो हमारे मुलुक में डोइने आते हैं? ये वाकई में सोचने वाली बात है।
हमारी बाइक पर उत्तराखंड का रजिस्ट्रेशन (यूके)को देखकर लोग काफी इम्प्रेस थे शायद। काफी शहरों में लोगों ने कहा- उत्तराखंड?
चित्रकूट से आगे आकर बांदा में पानी की बोतल लेने के लिए रुके, झाँसी अब केवल 180 किलोमीटर रह गया था, महोबा~मऊ-रानीपुर और फिर झांसी। तो एक तीस साल का नौजवान एक बच्चे को गोद में बिठाकर मेरे पास आया। बच्चे को पीछे सीट पर बिठाकर बोला- ले हो गया न खुश? बैठ गया न वाइक पर। फिर मुझ से मुखातिब हुवा। अच्छा तो बहुत दूर से आ रहे हैं फिर आप, झांसी? झाँसी तो कल परसों तक पहुँच पाओगे आप। मैंने कहा क्यों कल परसो क्यों? बोला पांच सौ किलोमीटर भी तो है। अब लखनऊ आएगा फिर वहाँ से कानपूर फिर झांसी। बहुत लंबा रास्ता है सर। मैंने सर पकड़ लिया। लखनऊ और कानपूर किस दिशा में और कितने पीछे रह गए और झांसी किस तरफ, वो बेचारा मदद तो बहुत करना चाहता था लेकिन ज्यादा कुछ जानकारी नहीं थी उसको। हमने चुपचाप निकल लेना उचित समझा वरना वो पूरा इतिहास भूगोल बिगाड़ देता।
वहाँ हमने अलग अलग शहरों में वहाँ के स्थानीय व्यंजनों का भी स्वाद चखा, जैसे वाराणसी का ‘बाटी-चोखा’। हमारे लिए नया था और मजेदार भी। ये चने के सत्तू का बना गोल गोल सा सब्जी और अचार के साथ परोसा गया आइटम है, साथ में बड़ी सी तलवार नुमा हरी मिर्च। दूर से देखने पर बड़ा-पाव जैसा। दस रुपए में दो। वाराणसी में महुआडीह रेलवे स्टेशन है जिसके पास में रेल इंजिन का कारखाना है। वहाँ जाने पर पास में एक ठेले पर ये व्यंजन खाने को मिला।
इसी तरह झांसी में वहाँ की सुबह चौराहे पर चाट की पुरानी दूकान पर लगी भीड़ और चटखारे लेते चटोरों के बीच हुई। पत्तल मैं कचोड़ी रखकर बोला बाबूजी क्या लेंगे साथ में, रायता, सब्जी, मीठी चटनी या दही। मीठे में बेसन के लड्डू या गर्मागर्म जलेबी। मन फिर भी आलू-रैता या डुबके-भात भी ढूंढ रहा था। ये मन भी ना।
तो इस तरह से ये यात्रा आज पूरी हो गयी। बहुत सारे अनुभव हुवे। कई भ्रम दूर हुवे। इस पूरी यात्रा में मुझे टेक्निकल सपोर्ट मिलता रहा, हमारी गूगल मैप में लोकेशन का भी रिकॉर्ड रखा गया था
और किसी इमरजेंसी के लिए मेरे पास बेकअप भी था। मेरा कंट्रोल रूम। लिली यादव आंटी का धन्यवाद। कुमार चित्रांग भाई का लम्बी यात्राओं का अनुभव मेरे भी काम आया। रक्षित वर्मा जी और डा. सुनील पँत जी की लाहौल स्पिति और लेह यात्राओं से रोमांच मिला और उनके साथ न जा पाने की खुन्नस की वजह से भी मैं जा पाया इस तरह।
डोई पाण्डेय जी से पहली मुलाकात के अगले ही दिन निकल पाना भी एक संयोग था। उनके नाम से ही डोईयाट जग पाया। पृथ्वी ‘लक्ष्मी’ राज सिंह दा रास्ते की अपडेट फेसबुक में डालते रहे और वापस आकर लिखने के लिए उकसाते रहे और हमारी खोज खबर फोन से करते रहे, साधुवाद उनको। मेरे अंतर्मन ने मुझे एक हफ्ते के लिए जाने की अनुमति ख़ुशी ख़ुशी दे दी, उसका भी धन्यवाद।
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