वैसे घूमने का शौक तो बहुतों को होता है लेकिन उसका वृतांत सुन्दर ढंग से लिखना बहुत कम लोगों को ही आता है। विनीत फुलारा ने यूपी के एमपी की संस्कृति को बड़े ही अच्छे ढंग से घूम घूम कर लिखा है- ‘लाल मिट्टी और खपरैल की छत, आह्हा!’
चित्रकूट में एक पहाड़ी पर हनुमानधारा नाम से एक जगह विख्यात है, दो किलोमीटर की चढ़ाई चढ़कर वहाँ पहुंचा जाता है। मध्य प्रदेश में यू पी की अपेक्षा कम आबादी और खुला खुला सा महसूस हो रहा था। वहाँ पर की लाल मिटटी और खपरैल की छत वाले घर बहुत आकर्षक लग रहे थे। महिलाओं का पहनावा भी कुछ अलग सा था। साडी कुछ अलग तरह से पहने हुवे थीं। महिलायें ही ज्यादा कर्मठ नजर आ रही थीं। उत्तराखण्ड की तरह वहाँ पर भी पुरुष कहीं चौपाल चौराहों पर आराम फरमाते और ताश लूडो खेलते ज्यादा नजर आ रहे थे। हम लोग कर्वी-चित्रकूट-बांदा होते हुवे कभी उत्तर प्रदेश कभी मध्यप्रदेश की सीमा पर स्वागत द्वार पार करते हुवे महोबा पहुंचे शाम को चार बजे।
शहर में प्रवेश करते ही एक सज्जन से शहर के बारे में जानने के लिए रुके, उनसे यह पूछने पर की झांसी यहां से कितनी देर में पहुचा जा सकता है, आपने जो जम कर अपने पन से लताड़ लगायी है कि “आप महोबा आ कर और यहां पर न रुकते हुवे झांसी जाने के बारे में सोच भी कैसे सकते हैं? जनाब यह आल्हा ऊदल रूदल की ऐतिहासिक भूमि है। यहां रुकिए, यहां के बारे में जानिए ऐसे कैसे जाने के बारे में सोच रहे हैं आप।” क्या गज्जब का अपनत्व था, और अपने शहर अपनी संस्कृति अपने इतिहास पर कितना गर्व था उस शख्श को। वाह मजा आ गया।
झांसी रोड पर आगे बढ़ने पर महोबा शहर के बीच में सरोवर दर्शनीय था। थोड़ी देर सरोवर के किनारे बैठकर उस सुंदरता को निहारा। शाम को टहलने निकले बहुत सारे बच्चे और युवा हमारे पास आकर हम से बहुत प्रेमपूर्वक पूछने लगे आप लोग कहाँ से आये हैं इस बाइक पर इतना सामान लादे। अच्छा? नैनीताल से आये हैं? आज रुक नही रहे? उस शहर में बहुत आत्मीयता महसूस हुई। बाद में मलाल भी रहा की वही रुक क्यों नही गये। महोबा से खजुराहो केवल साठ किलोमीटर रहा था लेकिन समय की कमी के चलते वहाँ भी नहीं जा पाए। वाराणसी के बाद से ही काम धंधे की चिंता सताने लगी थी की काम का कितना हर्जा हो रहा होगा इसलिए वापसी की जल्दबाजी हावी होने लगी थी। इसी उधेड़बुन में उस दिन बहुत लंबा सफर तय कर साढ़े पांच सौ किलोमीटर के बाद मऊ रानीपुर होते हुवे रात ग्यारह बजे झांसी पहुंचे।
इलीट क्रासिंग पर कमरा लेकर सुबह तक बेसुध सोये रहे। सुबह नहा धोकर झांसी का किला देखने निकले। किले के अंदर कूद स्थल(जहां से रानी लक्ष्मी बाई ने अपने दत्तकपुत्र को पीठ में बाँध घोड़े के साथ छलांग लगाई थी) और भवानी तोप देखने लायक है। किले की कोठरियों में चमगादड़ों की वजह से चुरेन बदबू बहुत ही असहनीय थी। किला देखने के बाद रानी का महल जो अब म्यूजियम बना दिया गया है कि तरफ गये लेकिन वो साढ़े नौ बजे खुलने वाला था। तब तक हमने वहाँ पर कचौड़ी-रायता का आनंद लिया। सुबह सुबह किसी चौक पर गर्मागर्म जलेबी कचौड़ी या पकौड़ी का लुफ्त लेते हुए ऑफिस को निकले, मॉर्निंग वॉक से लौटते और स्कूल के लिए निकले लोग देखे जा सकते हैं वहाँ। रानी का महल देखकर कमरे पर सामान समेटकर हम ग्वालियर को निकले।
दतिया होते हुवे ग्वालियर को आने में रास्ते में राजा वीर सिंह का किला बहुत आकर्षक है। पहले भी कई बार ट्रेन से चेन्नई या पुणे को आते जाते वो किला मैंने बहुत बार देखा था लेकिन इस बार खुद ड्राइव करते यहां तक आ पहुंचा था अच्छा महसूस हुवा। झुलसाती गर्मी थी। मुह सफ़ेद कपड़े से ढक कर सफर कर रहे थे।
पिछला भाग पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-