पचास साल पहले बंगाल के नक्सलबाड़ी क्षेत्र में 10 युवा आदिवासी लड़कों द्वारा शुरु किया एक विद्रोह. पचास साल बाद न केवल बंगाल बल्कि बिहार, उडीसा, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य-प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल में उसी नक्सल के नाम से नक्सली आंदोलन के नाम का तांडव मच रहा है. इतना विकास किया है भारत सरकार ने पिछले 50 सालों में. 10 लोगों का एक विद्रोह 10 राज्यों में आंदोलन के रूप में फैला दिया है .एक बात तो स्पष्ट है सरकारें समस्या सुलझाती नही बल्कि समस्या बनाये रखना ज्यादा पसंद करती हैं. अन्यथा कैसे संभव है कि आधुनिक हथियार और तकनीक से सुसज्जित अर्धसैनिकों बल के दस्तों को अपने सो-कॉल्ड पिछडेपन के कारण सो-कॉल्ड मुख्यधारा से अलग रहने वाले आदिवासियों का एक झुण्ड ढेर कर जाये. भले ही अब सरकारी बही-खातों में जुत्ते-चप्पल से लेकर अफसरों तक की कमी दिखायी जा रही हो लेकिन सैनिकों के नाम पर सरकार तो हर साल संसद से बिना सवाल-जवाब के पर्याप्त धन लेती है. वैसे अर्धसैनिक बल भारतीय सेनाओ में वही दर्जा रखता है जो भारतीय समाज में दलित रखता है. ये भारतीय सेना के वे वीर सैनिक हैं जो शान्ति के दौरान भी अपने सिर पर मौत की तलवार लटकाये घुमते हैं और पुरुस्कार के तौर पर इन्हें न केवल तनख्वा और सुविधाएं कम दी जाती हैं बल्कि शहीद होने पर भारत सरकार इन्हें शहीद का दर्जा तक नहीं देती है.
एक ऐसे दौर में जहाँ एक दिल टूटा आशिक या एक-तरफे इश्क का आशिक अपनी माशूका को मात्र एक स्मार्ट फोन के जरिये ट्रेश कर आये दिन उसे धमका या अपनी नजर में अपना प्यार बयां कर आता है वही भारत सरकार तमाम ताम-झाम के बाद आशिक के एसिड फ़ेकने का इन्तजार करती है. सोचने वाली बात तो ये है कि क्या भारत सरकार इतनी बेबस हैं की कोई भी गली-मोहल्ले का नौसिख्या ब्लैक-बेल्ट सर्टिफिकेट वाली लड़की पर एसिड फेंक जाये. दो ही बाते हो सकती हैं या तो लड़की का सर्टिफिकेट नकली हैं या फिर लड़का नौसिख्या नहीं हैं. दोनों स्थितियों में सरकार ही दोषी है. घटना घटने के बाद आप मौहल्ले का थानेदार नियुक्त कर पूरा मौहल्ला जला देने की धमकी के साथ मौहल्ले के कुछ छटे बदमाशों को उल्टा टांग चाहे कितने डंडे बरसा लिजिये एसिड फेंकेने की मूल समस्या से आप कोसों दूर हैं.
आजादी से पहले और आजादी के बाद भारतीय सैनिकों की स्थिति में कोई खास परिवर्तन हुआ नहीं हैं. आजादी से पहले अंग्रेज भारतीय सैनिकों का प्रयोग पहली पक्तियों में मरने के लिये करते थे आज हमारे माननीय भी वही करते हैं. कुर्सी की लडाई में पहली पंक्ति पर मरने के लिये आज भी भारतीय सैनिक ही तैनात किया गया है. आदिकाल से सैनिकों के लिये सामान्य-जन के मन में हमेशा बहुत सम्मान रहता है लेकिन इस सम्मान की आड़ में अपनी रोटियां पहले भी सेकी जाती थी अब भी सेकी जा रही हैं जैसे सुकमा के हमले में विपक्ष, राज्य सरकार, राज्य पुलिस, स्थानीय सरकार और लोकल इंटेलीजेंस ने सेकी हैं.कुल मिलाकर सुकमा एक नक्सली हमले से ज्यादा एक सरकारी हत्याकांड है.
समय आ गया है कि सरकारें ट्विटर रुपी विध्वंसकारी मिसाइलों से निंदा के बडे-बडे गोले छोडना बंद करे. सरकारें इंटरनेट के जाल में वार्ता की टी-टेबल लगाने की कोशिशें बंद करे. किसी भी कारवाई से पूर्व सरकारें पहले अपने सरकारी और लोकतांत्रिक तंत्र के भीतर के गद्दारों की छांट करे. डब्बल इंजन दिये जाने के बावजूद अगर ट्रेन में एक खरोंच भी आती तो शर्मनाक था यहाँ तो डब्बा ही उडा दिया गया है. जिम्मेदारी तय करने हेतु केंद्र भले ही अर्धसैनिक सेस आम-जन पर लगा दे लेकिन अब सरकारी महकमों में भी इन हत्याओं की जिम्मेदारी तय की जानी चाहिये. जिससे पूछा जा सके सुकमा घटने से पहले डीजी की नियुक्ति क्यों नही की गई? जिससे पुछा जा सके छ्त्तीसगढ पुलिस क्यों अर्धसैनिक बलों को आस-पास की जानकारी देने में असफल रही? जिससे पुछा जा सके किन कारणों के चलते लोकल इंटेलिजेंस की सूचना सैनिकों तक नही पहुची? जिससे पूछा जा सके जिन लापरवाह अधिकारियों या अफसरों के चलते सेना के जवानों को जान से हाथ धोना पड़ा उनके खिलाफ क्या कार्रवाई की गयी? जिससे पुछा जा सके नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के विषय में केंद्र और राज्य के मध्य कितनी बैठकें हुई हैं ? क्या फैसले लिये गये हैं? पुछा जा सके ” एन आई फार एन आई ” के इस सिलसिले का अंत कब होगा?