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दिल्ली में राजू नेपाली

सितंबर 30, 2016 कमल पंत

दिल्ली की सड़कों में रोजगार के लिए बहुत से लोग नजर आ जाते हैं। कोइ पंजाब से कोइ बिहार से कोइ साउथ से तो कोइ दूर मणिपुर असम से। सबकी अपनी अपनी परेशानियां अपने अपने दर्द हैं। पड़ोसी देश नेपाल से आये एक ऐसे ही चाऊमीन बेचने वाले नेपाली युवक के दर्द को सुना हमारे बांगड़ू प्रकाश शर्मा ने। उसके दर्द को हूबहू उसकी भाषा में यहाँ उतारा है।

दिल्ली में कई नेपाली आपको सड़क किनारे चाउमीन या मोमो बनाते बेचते मिल जाएंगे। इन्हीं में से एक है राजू, जो नुक्कड़ के आखिर में चाउमीन बनाता बेचता है। कभी कभी उसकी बीवी भी उसका बंटाती दिखती है। उसके साथ कभी कभी गप शप के लिए बैठ जाता हूँ।
“हाम्रा बी नेपाल में जमिन हे दाई। पर किश्मत हाम्रि ऐसा ही हे।”
“कितना कमा लेते होगे राजू भैया?”
“थोडा थोडा।”
“कहाँ रह रहे हो अभी?”
“पीरागढ़ी का झुग्गी में, भाड़ा देता है दुई हज्जार।”

उसकी वेदना समझता हूँ।

एक बार उसकी आँखों में डर दिखा। मैं अपने राशन के थैले के साथ ही पहुंचा।
“क्या हुआ भैया?”
वो बस लगभग छठी में पढ़ने वाले लड़कों के झुण्ड की ओर कड़कती नज़रों से देख रहा था। अब क्योंकि उसकी आँखों के डर को मैं भांप गया था, तो उसके साथ में मज़बूती से खड़ा हो गया, मुझे देख थोड़ी देर में बच्चे इधर उधर हो गए।
“हमको ऐसे ही परेशान करता है ये दाई”
बोलते बोलते उसके हाथ पत्तागोभी पर बड़े सलीके और फुर्ती से चल रहे थे।
“कैसे करते हैं भला?”

“खा कर पैसा नहीं देता है। इनको कुछ बोलेगा तो इनका परिवार लड़ने को आता है। क्या करूँ दाई, अपने मुलुक छोड़ कर थोडा पैसा कमाने को इधर को आता था, कमाने को बी नई देता ये लोग!”

उसकी आँखों में मजबूरी और टीस को महसूस कर चुका था। इतने में चमकती आँखों से उसने पूछा, “दाई, अबी आपका लिए चाउमीन बनाता हूँ!”

और हाफ प्लेट के रेट पर एक पूरी थैली भर के चाउमीन देकर उसने मुझे विदा किया।

जाते जाते मैं उसे अपना फोन नंबर देना नहीं भुला, “भैया, फिर दिक्कत हो तो फोन कर देना। आ जाऊंगा।”

उसने एक सलाम सा मारते हुए मुस्कुराते हुए कहा, “थैंक यू दाई!”

उसके चेहरे पर एक बन्दे का साथ पाने का सुकून पढ़ सकता था मैं।

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