बांगड़ूनामा

पागल!

अक्टूबर 3, 2016 ओये बांगड़ू

गोरखपुर का छोरा सुबोध दिल्ली में होटल की नौकरी में फंस गया था लेकिन लिक्खाड़ लोगों ने अपने खून को अपनी और खींच ही लिया और सुबोध अब कलम की लड़ाई लड़ने के लिए जर्नलिज़्म की शिक्षा ग्रहण कर रहा है. उनकी एक कहानी पागल आपको पागल बनाने के लिए काफी है-

गोरखपुर का छोरा सुबोध दिल्ली में होटल की नौकरी में फंस गया था लेकिन लिक्खाड़ लोगों ने अपने खून को अपनी और खींच ही लिया और सुबोध अब कलम की लड़ाई लड़ने के लिए जर्नलिज़्म की शिक्षा ग्रहण कर रहा है. उनकी एक कहानी पागल आपको पागल बनाने के लिए काफी है-
छोटे से इस शहर में गुज़ारे मेरे छोटे से वक़्त में मेरे कमरे के अलावा जो जगह मेरा ठिकाना रही, वो थी आज़ाद चौक पर चचा की चाय की दुकान । हालांकि कमरा मैंने बड़गो में आशिमा के घर के बगल में ही लिया था मगर घर से साथ निकलना ठीक नहीं लगता था, छोटे शहरों की रवायत इन दिल्ली मुम्बई से ज़रा अलग क़िस्म की होती है । तो अब क़ायदा यही था कि मैं कोई दस-एक मिनट पहले निकल आता और आशिमा के आने का इंतज़ार करता, फिर यहाँ से हम दोनों साथ निकलते । वो यूनिवर्सिटी और मैं उसे छोड़ता हुआ गोलघर में अपने ऑफिस । शाम को वापिस जाते वक़्त का  भी यही शगल था, पहले आशिमा और फिर थोड़ी देर में मैं ।

पहले मैं दिल्ली में था । तकरीबन आठ महीने पहले जब आशिमा की माँ गुज़र गयीं, उसी के कुछ ही दिन बाद मेरी कम्पनी ने यहाँ गोरखपुर में नयी सेल्स डिवीज़न खोल दी । नसीब एकदम से चमका और खलीलाबाद से होने की वजह से मुझे फ़ायदा मिला, मुझे यहाँ भेज दिया गया ।

गोरखपुर वैसे भी मेरा अपना शहर था, यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दिनों की यादें हैं, बुआ का घर है, पिताजी का ऑफिस और, सबसे बड़ी बात आशिमा है !! यूँ तो यहाँ से जुड़ा कुछ भी कभी भूलने लायक नहीं मगर एक वाक़या ऐसा बीता कि उसे याद रखूँ या भूल जाऊँ समझ नहीं आता।
चचा की दुकान पर चाय पीते आशिमा का इंतज़ार करना रोज़ का मामूल था । ऐसे ही एक बार एक आदमी दिखा, उम्र से करीब साठ-बासठ साल का रहा होगा, मुझ छः फुटे आदमी से भी दो अंगुल लंबा, बड़े कायदे से छाँटी हुई दाढ़ी-मूंछ और ललछाहूँ गोराई । मगर करता क्या था कि हर आने जाने वाले को रोकता और उससे एक सवाल पूछता- ‘उसका नाम क्या था ? याद है तुम्हें ?’

मैं उसे देख ही रहा था कि उधर से आशिमा आती दिखी । बस, उठा और चल दिया । मैंने उस आदमी को उस दिन पहली दफ़े देखा था। शायद वो अभी ही आने लगा था, या शायद वो पहले भी आता रहा हो और मेरा ध्यान उसपर न गया हो ।  ये सिलसिला कई दिन तक चलता रहा । मैं चाय पीता, वो आदमी आता, लोगों से पूछता-‘उसका नाम क्या था? याद है तुम्हें ?’, आशिमा आ जाती और मैं उठकर चल देता ।
आखिर एक दिन मैंने चाय दुकान वाले चचा से पूछ ही लिया, कि चचा ये माजरा क्या है ! चचा ने बताया कि ‘बेटा तुम्हारे आने से कुछ दिन पहले ही ये पहली बार दिखा था । इसके हुलिए पर मत जाओ, असल में ये पागल है ।’

‘मगर चचा ये पागलों जैसा तो कुछ नहीं करता ! न लड़ता है, न गालियाँ बकता है, न किसी पर पत्थर फेंकता है’ मेरी बात सुनकर चचा हँसने लगा और बोला, ‘बेटे, लगता है तुमने पागल सिर्फ टेलीविज़न में देखे हैं सब पागल, पगलेट नहीं होते । कुछ पागल बड़े, गुम क़िस्म के हुआ करते हैं।’

मैं अपनी नासमझी पर हँसता हुआ फिर चल दिया, लेकिन मन ही मन ये तय करते हुए कि कल इस पागल से बात की जाए । वैसे भी बड़ा समझदार किस्म का पागल है, खतरा ही क्या है !!
अगले दिन मैं अपने रोज़ाना के वक़्त से कोई पंद्रह मिनट पहले ही दुकान पर पहुँच गया । चाय पी कर निपटा ही था कि वो पागल आदमी सामने से आता दिखाई पड़ा । मैंने चाय के पैसे दिए, और खुद ही चल कर उसके सामने पहुँच गया । मुझे सामने खड़ा देख कर वो पहले मुस्कुराया ।  हकीकत कहूँ तो उसके मुस्कुराने से मैं डर गया, मान लीजिए कि सिहर ही गया था । उसने अपना दायाँ हाथ आगे बढ़ाया, मुझे नहीं याद मैंने अपने दिमाग में ये तय कब किया मगर मैंने उससे हाथ मिला लिया । हाथ मिलाते ही उसने कहा, ‘आज चाय जल्दी पी आए बाबू !’
उसकी इस बात से मैं सुन्न सा हो गया । ज़ेहन में कई सवाल उभरे, मसलन ‘ये मुझ पर ध्यान क्यों देता रहा ? इससे बात करना ठीक तो है ? कहीं कोई खतरा तो नहीं ? अगर इसने मुझपर हमला बोला तो इतने मज़बूत आदमी को मैं संभाल पाऊंगा ?’

मुझे खामोश देखकर वही बोला, ‘मैं जिस वक़्त चाय दुकान पर पहुँचता हूँ, आप उस वक़्त चाय पी रहे होते हैं । आज इसी तरफ आते मिल गए, लगता है आज जल्दी आ गए।’

अपने होश संभालते हुए मैंने अपना हाथ उसके हाथों से अलग किया, या कहिए कि मैंने उसका हाथ छोड़ा । घबराहट की बदहवासी में मैं अब तक उसका हाथ पकड़े ‘हेल्लो’ में हिलाए जा रहा था ।
‘हाँ आज ज़रा जल्दी आ गया था’
‘बाबू एक बात पूछें, बताएंगे आप ?’
‘जी हाँ, पूछिए’
‘उसका नाम क्या था ? याद है तुम्हें ?’
मैं अबतक अपने होश में आ चुका था । खुद को सहेजते हुए बड़े ठहराव के साथ मैंने उससे बात करनी शुरू की।
‘नहीं, मुझे तो नहीं याद।’
‘ओह्ह !! कोई बात नहीं। चलिए आगे पूछता हूँ किसी से’
और वो अपने रास्ते जाने लगा । मैं एक पल को रुका रहा फिर सोचा बात करनी है तो कर के ही जाऊंगा । मैंने उसे पलटकर आवाज़ दी- ‘अच्छा सुनिए तो सही’
‘हाँ बाबू, कहिए’
‘दो मिनट बैठिए तो यहाँ, शायद मैं आपकी कुछ मदद कर पाऊँ’
‘हाँ हाँ, बिलकुल’ और वो ख़ुशी ख़ुशी बंद पड़ी नाइ की दुकान के आगे पड़ी लकड़ी के बेंच पर आकर बैठ गया । मैंने उसके बगल में बैठते हुए उससे पूछा- ‘आप यहाँ के तो नहीं लगते’
वो फिर से मुस्कुराने लगा । ‘जी हाँ, सही पहचाना आपने । मैं दिल्ली से आया था यहाँ । वैसे पहाड़ी हूँ । गढ़वाल से । मैं उसके लिए यहाँ आया था । उसका नाम!’
‘मगर आप उसका नाम भूले कैसे ?’
‘उसी ने कहा था’
‘क्यों ?’
‘मैं उसे बहुत प्यार करता था बाबू । वो किसी रिश्तेदार के यहाँ दिल्ली आई थी, मेरे पड़ोस में ही रहती थी । मुझे बहुत प्यार हो गया उससे । लेकिन फिर वो एक दिन वापिस आ गई । मेरे पास उसका पता था । मैंने ख़त लिखा, तो उसका जवाब आया । मैं अब वहां नहीं आ पाऊँगी । प्यार है तो आओ, और ले जाओ मुझे यहाँ से ।’
‘फिर ?’
‘मैंने जवाब दिया, कि मैं दिल्ली पैसे कमाने आया हूँ । नौकरी चली जाएगी । कैसे आऊँ । उसका जवाब आया कि भूल जाओ सब । मेरा नाम भी । मर भी जाऊं तो याद न करना ।’
‘तो फिर आप यहाँ आए कब ?’
‘आठ महीने हुए बाबू’
‘दिल्ली में आपका घर परिवार तो होगा न, वो लोग आपको खोज रहे होंगे’
‘उसके बाद मैंने शादी नहीं की । कोई अच्छा ही नहीं लगा बाबू । एक भीख मांगते लड़के को उठा ले आया था । उसी को पाला पोसा, उसी ने दोस्तों के साथ मिलकर मार के भगा दिया मुझे घर से बाहर । सड़क पर रोता रहा तो फिर उसकी बहुत याद आने लगी । शायद एक बार मिल जाए वो, उससे माफ़ी मांग लूँ, इसलिए चला आया’
‘ये नहीं सोचा आपने कि नाम पता तो है नहीं, खोजूंगा कैसे ?’
‘था बाबू । नाम पता सब था । उसके रिश्तेदार जो मेरे पड़ोसी थे उनसे लिया था ।’
‘फिर कैसे भूल गए ?’
‘उनके दिए पते पर पहुँचा तो वहाँ किसी की मौत हुई थी । औरत की । दिल ठिठक गया बाबू । कहीं वो ही तो नहीं । बाहर से ही लौट आया, तभी से नाम याद नहीं आ रहा।’ वो मेरा हाथ पकड़ कर रोने लगा और रोते रोते अपना माथा मेरे हाथों पर रख दिया ।
मैंने उसके आँसू पोंछे । बैग में से पानी निकाल कर पिलाया । और मज़ाकिया लहजे में उसके बाल ठीक किए, ‘कमाल करते हैं काका !! इतनी शानदार पर्सनैल्टी लेकर ऐसे सड़क किनारे रोएंगे तो लोग समझेंगे पागल है। चुप हो जाइए, चलिए’
वो मुस्कुराने लगा । मुझे उसकी हँसी अच्छे से याद है, उतनी उम्र में भी उसकी हँसी एकदम बच्चों सी थी ।
मोड़ से आशिमा आती दिखाई दी । मैं उसकी तरफ़ देखने लगा, और वो आदमी भी । मैं चलने को उठा तो सोचा थोड़ा और छेड़ दूँ, दिन भर ऐसे ही खुश रहेगा उसका नाम पूछते- ‘काका, उसका नाम आशिमा तो नहीं ?’
उसकी हँसी फिर गुम हो गई । दूर सड़क पर खोए हुए उसने बताया, ‘नहीं, आशिमा उसका नाम नहीं था बाबू । हाँ, ये नाम मुझे बहुत पसंद था । मैंने उससे कहा था कि जब तुझसे ब्याह करूँगा तो हमारी पहली औलाद बेटी होगी देखना । और उसका नाम आशिमा रखेंगे ।’

उस पागल से हुई उस बातचीत के बाद मुझे अगले दो दिन का कुछ ठीक से याद नहीं। जाने किस बेहोशी में अगले दो दिन जिए मैंने। और अगले दो दिन वो मुझे दिखा भी नहीं था।
हाँ, इतना याद है कि तीसरे दिन चाय पीते हुए चचा ने बताया था कि उस पागल की लाश राजघाट पुल के नीचे मिली है।

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