हिन्दी पहाडी के जबर्दस्त कहानीकार स्वर्गीय तारा मोहन पन्त जी ना सिर्फ हिन्दी पहाडी बल्कि बनारसी , अवधी , भोजपुरी आदि बहुत सी भाषाओं में लिखने की महारत रखते थे. उनकी इस कहानी में आपको बनारसी एसेंट भी खूब देखने को मिलेगा .
बात बनारस की है , नौकरी लगे हुए एक साल हो चुका था , चंडीगढ़ ट्रेनिंग कालेज के लिए मेरी ट्रेनिंग आई हुई थी , काशी विश्वनाथ ट्रेन से लखनऊ तक रिजर्वेशन उसके बाद ब्रेक जर्नी लेकर दूसरे दिन पंजाब मेल से अम्बाला तक का रिजर्वेशन कराया हुआ था । बाबू भाई मेरे मित्र बन चुके थे , उनका साड़ी का व्यापार था , उनकी गद्दी पर मेरा अक्सर जाना होता था, उनकी पत्नी मुझसे बहुत स्नेह रखती थीं मुझसे पर्दा नहीं करती थी , घर में जो कुछ भी बना होता वो बड़े चाव से मुझे खिलातीं , कहतीं भाई जान खाया पीया करो बहुत सुस्त हो गए हो, बाबू भाई भी मुझसे बड़े आदर से बातें करते, कहते, “यार देखो , यों तो मेरे तीन भाई हैं पर सबके सब काहिल हैं, बात बात पर झगड़ते रहते हैं, तुम्हारी भाभी जान भी उन्हें पसंद नहीं करती , इसलिए तुम्हें छोटा भाई माना हुआ है हमने , जब कभी मन हुआ करे इधर ही आ जाया करो , यहीं दो बोटियाँ खा जाया करो । पति पत्नी का यह प्रेम मुझे बरबस ही उनकी और खींच ले जाया करता । जब बाबू भाई दिल्ली जाते तो मेरे लिए कुछ न कुछ जरूर लाते , मैं भी जब लखनऊ आता तो उनके लिए सुगन्धित रेवड़ियां जरूर ले जाता, इस प्रकार उनसे एक प्रेम का नाता बन चुका था ।
भाभी जान को जब मालूम पड़ा कि मैं ट्रेनिंग पर चंडीगढ़ जा रहा हूँ तो उन्होंने , बाबू भाई के हाथों एक मिट्टी के मरतबान में कबाब भिजवा दिए थे , जिन्हें बाबू भाई स्टेशन पर देने आये हुए थे । फर्स्टक्लास के कम्पार्टमेंट में, मैं भीतर बैठ गया , अपना सामान व्यवस्थित करने लगा, बाबू भाई मेरी सहायता कर रहे थे । तभी कूपे में एक परिवार भी चढ़ा , वे लोग भी अपना सामान रखने लगे, अभी गाडी छूटने में वक्त था इसलिए बाबू भाई मुझसे गप्पें मारने लगे । जेम्स हेडली चेज का एक उपन्यास , जो मेरा अधूरा पढ़ा हुआ था बाहर ही रखा हुआ था , बाबू भाई जल्दी से जाकर डनहिल का एक पैकेट ले आये और माचिस के साथ नावेल के ऊपर रख दिया । बाबू भाई बड़े दुखी मन से बोले “अमे यार महीने भर के लिए जा रहे हो हमारा मन कैसे लगेगा, अपनी खैर खबर देते रहना, तुम्हारी भाभी जान को भी तुम्हारी याद आयेगी ” बार बार ताकीद करते, “मियाँ कबाब बहुत लज़ीज बने हुए हैं इन्हें लखनऊ तक निपटा लेना ”
अनेकों बार चलने को कहते हुए भी बाबू भाई गाडी से तभी उतरे जब यह चलने लगी , नीचे उतर कर भी गाडी के साथ थोड़ी दूर तक दौड़ते रहे और ताकीद करते रहे कि अपना ख्याल रखना। गाडी रफ़्तार पकड़ चुकी थी , मैंने अपने सहयात्रियों की और देखा, वे भी तसल्ली से बैठने का उपक्रम कर रहे थे । ट्रेन यात्रा में अक्सर सहयात्री आपस में बातें शुरू करते हैं और फिर घुल मिल जाते हैं , इसी उद्देश्य से मैंने उन सहयात्रियों में से पुरुष सहयात्री से पूछा,” कहाँ तक जा रहे हैं भाई साहब ?,वे बोले,” लखनऊ तक जा रहे हैं जनाब ” वो शायद मेरी फ्रेंच कट दाढ़ी को देखकर और बाबू भाई से हुई बातचीत सुनकर मुझे मुस्लिम समझने की भूल कर रहे थे , तभी एक महिला जो शायद उनकी पत्नी थी उन्हें डपटते हुए बोली ” चणी रओ , नन्दूक बौज्यू , तौ मुसईक मुख नि लागौ” , वे बेचारे चुपचाप ऊपर वाली बर्थ पर लेट गए ।
मैं अपने उपन्यास में व्यस्त हो गया, यह बड़ी रोचक स्थिति में था , तभी मेरे कानों में सहयात्रियों की फुसफुसाहट पडी , उन तीनों लोगों में जो सबसे छोटी थी वो शायद उन्नीस या बीस बरष की रही होगी, वो शायद उस विवाहित महिला की छोटी बहिन थी, वो अपनी बड़ी बहन से बोली, “देखण लागि रै छी दीदी , कस भिषूण जौ लागि रौ तौ मुसई ”
बड़ी बहिन तत्काल उसके सुर में सुर मिलाती हुई बोली,” होय, होय ठिक्क कुनें छी तू , कस धुंकार ( शायद सिगरेट का धुवाँ ) फुकण लागि रौ ,त्यार भिनज्यू ले मलि हडी रईं , क्वे मना करनी ले नि भै , आफि रूँ वे दीपा , दुपट्ट मुंख में धरि ले ”
मुझे चेइज के उस रहस्यमयी उपन्यास से ज्यादा मज़ा इनकी बातों में आने लगा , मैंने बाबू भाई के दिए हुए कबाब खाने शुरू किये, तभी छोटी बहिन बोली,” छि : छी : कस भकोरण लागि रौ तौ , जरूर भैंसक हुनल , मेरि दगडु बतूण लागि रै छि कि यो लोग भैंसक शिकार खानी ” तभी बड़ी बहन बोली ” अरे तनर नि कौ , तनर घर जाओ त , पाणि गिलास में थुकि बेर दिनीं , मेरि जिठाणि बतूनेर भै , तनर घरक भ्यार टाटक पर्द टांगी रू , अत्ती अलीत हुनेर भै तौ लोग ” । चार पांच कबाब खा कर मैंने जोर की डकार ली, तो छोटी बहन मुंह में दुपटटा रख कर बोली, ” छि : छी :, मैंकनि उखाल नि है जाऔ कईं ” बड़ी बहिन बोली तु ऊ तरफ ध्यान नि दे , ले तू संतरा छिली बेर खा ” ।
गाडी भदोही पहुँच रही थी , यहाँ एक चाय वाला चढ़ा , उस समय वो तीन रुपये की चाय देता था, प्योर दूध में , ठेठ बनारसी अंदाज में बनी चाय बहुत प्रसिद्ध थी , मैंने तीन रूपये देकर उससे एक चाय खरीदी और उससे बोला, ” का मर्दवा , ठीक बनल हौ चहिया , वो बोला “पी कर देखल जाय बाबू , तबहिं त पता चली ” मेरे एक घूँट लेते ही वह बोला ” का बाबू कइसन हौ चहिया ? मैं बोला ” एकदम मस्त बनल हौ ” फिर वो सहयात्रियों की और उन्मुख हुआ , और बोला ,” चाय पियल जाय बहन जी , एकदम मस्त बनल हौ ” बड़ी बहन अपनी छोटी बहन से बोली ,” आपुण भिंज्यूँ कण उठा वे दीपा , चहा पियौ कौ तनन थें ” ।
ऊपर बर्थ पर लेटा हुआ पुरुष नीचे उतरा और वे सभी चाय पीने लगे , गाडी फिर चल पडी , चाय पीकर कुल्हड़ मैंने अपनी बर्थ के नीचे रख लिया , फिर पोटली से एक पान निकाल कर उसमें महकता हुआ किवाम लगाकर , मैंने अपने मुंह में रख लिया , किवाम की खुसबू सारे कूपे में फैल गई , शायद वो पुरुष भी पान का शौकीन था , इसलिए बातों की लड़ी जोड़ता हुआ वह मुझसे बोला ,” बड़ी गज़ब की खुशबू है आपके पान की , लगता है आप बेहतरीन पान खाने के शौकीन हैं ” उसके मन के भावों को पढते हुए में बोला , ” क्या आप भी नोश फरमाइयेगा ?” वो झिझकता हुआ बोला,”अरे नहीं मैंने तो यूं ही पूछ लिया, आप खाइये, इतने शौक से आप सहेज कर इन्हें लाये हैं, आप को कम पड़ जायेंगे ” मैं जोर देकर बोला ,” अरे खाइये हुज़ूर ,पान तो लबों की शान है, इस लज्जत में ही इज्जत है ” हैं !हैं! ! हैं ! कहते हुए उसने एक जोडी पान ले लिया और खा लिया । पान चुभलाते हुए वह बोला,” सचमुच बहुत लज़ीज है आपका पान ” । फिर हम बातों में मशगूल हो गए ।
जब हमारी बातों का क्रम टूटा तो जैसे उसकी पत्नी ताक में ही बैठी थी , तमक कर वह बोली,” शरम ले नि ऊंनि तुमन कनि , मुसाइयो हथौक पान खाई बेर, कांक बामण भया तुम ? सिटपिटाटा हुआ वह बोला “चुप कर रे , के कॉल उ सुणल तौ ? वो फिर गुस्से में बोली ,” मयार घुत्ती में तैक सुनण और समझण, वीक माटाक भान में भैसक शिकार ले धरी छू , ऊ ले मांगी बेर खै लियौ ”
अब उनके बीच में मुझे लेकर बहस शुरू हो गई , पुरुष मेरा पक्ष लेता तो महिलायें कई प्रकार के उदाहरण देकर उसको चुप करा देतीं । दिन ढल रहा था , ढलते सूरज की तीखी रोशनी उस कूपे में सीधी पड रही थी , मैंने बैग से अपना गागल निकाला और पहन लिया , सामने शीशे में अपने को निहार ही रहा था कि तभी छोटी बहन बोली, ” कस ओछयाट करण लागि रौ तौ , गाडी भीतर काल चशम पैर बेर , जांक हीरो समझण लागि रौ तौ आपुण कनि ” बड़ी बहिन खी खी कर हँसने लगी , चुटकी लेते हुए बोली , ” किलै दीपा , पसंद ऐ गौ तौ , त्योर ब्या ठरे दिनू तैक दगड़ ” तमक कर वह बोली,” होय तसै करला तुम , इज़ – बाबुल तबै भेजी भयूं में तुमार याँ ” अब गाडी प्रतापगढ़ पहुँच रही थी , यहाँ आलू की गरमागरम टिक्कियां मिलती हैं , गाडी रुकते ही खिड़की पर कई टिक्की वाले आ गए , सहयात्री पुरुष ने सभ्यता के नाते मुझसे पूछा ,” टिक्की लीजियेगा जनाब ? सभ्यता से ही मैंने उत्तर दिया ,” नहीं नहीं कबाब हैं मेरे पास , आप लीजिये ” वो बोला .” अरे कबाब तो ठन्डे हो गए होंगे , इन्हें गरमागरम टिक्कियां के बीच दबाकर खाइये” मैंने कहा अच्छा आइडिया है , मगर इतने मैं नहीं खा पाउँगा , आप भी साथ दीजिये ” वो तपाक से बोला,” जरूर, जरूर , लीजिये आप शुरू करिये ” मैंने दो टिक्कियां के बीच में कबाब दबाते हुए उसको दिए और इसी तरह अपने लिए भी बनाया और हम दोनों खाने लगे । यह अप्रत्याशित था, महिलायें अचम्भित थीं , वे एकदम से रिएक्ट नहीं कर पा रही थीं , छोटी बहिन बड़ी को कोहनी से ठहोका देकर बोली ,” बस देखि हालो तुमर बामणपन , तौ भिनज्यू त औरे छिछरोल करण लागि रईं , तू तनकंन रोकण नि लागि रई ” बड़ी बहिन खिसिया कर बोली ” के कूँ दीपा, तू त चार दिना लिजी आई भई , यो त कबै कबे ऑफिस बटी घुटकि लगे बेर ऊनी , तब वां हाड ले पड़कांन हुनाल , तबै तनरि तस आदत छू ” दोनों महिलायें तब आजकल के ब्राह्मणों के पतन पर चर्चा करने लगीं ।
लखनऊ का आउटर आ रहा था , गाड़ी धीरे धीरे , प्लेटफार्म की और बढ़ रही थी , सब अपना अपना सामन सहेजने लगे , सहयात्री पुरुष मुझसे बोला ,” बड़ा अच्छा लगा आपसे मिलकर जनाब, कभी हमारे घर तशरीफ़ लाइयेगा ” मैंने भी गर्मजोशी से उससे हाथ मिलाया और कहा,”जरूर, भाई साहब मौक़ा मिलते ही आपके घर आऊंगा ” इतना सुनते ही छोटी बहन बोली ,” हैगे दीदी , अब त्यार घर में मुसलियोल है जालि ” खैर गाडी रुकते ही मैं उतर गया और निकास द्वार की और चल पड़ा । घर पहुंचते ही मैं सारा वाकया भूल गया । दूसरे दिन अम्बाला जाना था इसलिए इसकी तैयारियों में ही रात हो गई , खाना खाते वक्त सारी बातचीत मेरी नौकरी और ट्रेनिंग की होती रही, ईजा चिंतित थी कि एक महीने तक मैं कैसे रहूँगा , खाने वगैरह की क्या व्यवस्था होगी , मैंने उसे समझाया कि वहाँ सब कुछ मिलता है, बल्कि इतना ज्यादा मिलता है कि आदमी खाते खाते थक जाता है ।
दूसरे दिन ईजा ने मुझसे कहा , दिन में कहीं नहीं जाना , मुझे चारुचंद्र जी के यहाँ न्यौते में जाना है, मेरा साथ रहेगा , मैंने अपने दोस्तों के साथ प्रोग्राम बनाया हुआ था , दिन में हज़रतगंज घूमेंगे , पिक्चर देखेंगे , पर ईजा ने मेरे सारे प्रोग्राम किनारे कर दिए और बोली,” कतूक महीण बाद तू ऐ रौ छै , म्यार दगड हिट , वां खाणक न्यूत ले छू , म्योर त बर्त भै तू खाई लिए ” ईजा की इच्छा को नकार नहीं सकता था , इसलिए रिक्से में बैठकर चारुचंद्र जी के घर की और चले । उनके यहाँ बड़ी गहमागहमी थी , उनके दूर दराज के रिस्तेदार आये हुए थे , चारू जी की बड़ी बहू ने ईजा की अगवानी की , ईजा ने मेरा परिचय कराया , वे मुझे बैठके में ले गई वहाँ सोफे पर मुझे बैठाया और ईजा को अंदर ले गईं । थोड़ी देर में एक लड़का पानी सर्व कर गया और मुझसे बोला आप को अंदर बुला रहे हैं , मैंने सोचा इतनी जल्दी खाने के लिए बुला रहे हैं चलो अच्छा है, जल्दी छुट्टी मिलेगी मैं अपने दोस्तों के साथ घूम लूँगा । भीतर कुछ बुजुर्ग महिलाओं के साथ ईजा बैठी हुई थी , ईजा ने उनके पाँव छूने के लिए कहा , जो कहा जा रहा था यंत्रवत में उसे कर रहा था । मुझे एक कुर्सी पर बैठने को कहा गया , मेरी पीठ भीतर के दरवाजे की और थी , तभी एक हाथ में प्लेट में मिठाई वगैरह लेकर एक लड़की आई, उन बुजुर्ग महिलाओं ने उससे मेज पर रखने को कहा, मुझपर नजर पड़ते ही मानो उसके सर पर घड़ों पानी पड गया, मेरी भी कमोबेश यही हालत थी , यह वही ट्रेन वाली छोटी सहयात्री थी , महिलाओं ने उससे चाय बनाकर मुझे देने को कहा, तो उसके हाथ कांपने लगे, हड़बड़ाकर मैंने कहा रहने दीजिये मैं चाय नहीं पीता , यह कह कर मैं बाहर निकल आया , ईजा कहती रह गई कि “अरे सुन तो, चाय तो पीता जा, ” मेरी स्थति अजीब सी हुई जा रही थी , मैंने ईजा से कहा मैं यहीं नजदीक में अपने दोस्त के घर जा रहा हूँ तुमको जब चलना हो तो मुझे बुला लेना ।
बाद में लौटते समय ईजा ने मुझसे कहा कि ऐसा नहीं करते हैं तुमको लड़की पसंद नहीं थी तो तुम किसी और तरीके से मना कर देते, तुमने तो उसके हाथ की चाय भी नहीं पी , लड़की स्वभावगत शर्मीली होती है, शर्माना तो उसे पडता ही है , मैंने बात को किसी तरह टाल दिया, ये अच्छा ही हुआ कि शाम को मुझे अम्बाला जाना था इसलिए घर पर भी इस बात पर ज्यादा चर्चा नहीं हुई । पंजाब मेल में बैठा हुआ मैं यह सोचने लगा कि हम किसी भी व्यक्ति के बारे में कितनी जल्दी अपनी धारणा बना लेते हैं , कोई भी व्यक्ति अपने रंग रूप, जाति , सम्प्रदाय के बाने से पात्र या कुपात्र नहीं होता , एक तरफ बाबू भाई और उनकी पत्नी मुस्लिम होते हुए भी मुझसे इतना स्नेह रखते थे कि वे अपने समाज से, अपने सगे भाइयों के विरोध के बावजूद मुझसे नाता बनाये हुए थे, एक ये सहयात्री जो अपनी छुद्र मानसिकता के कारण इस निर्णय पर पहुँच गए ।
मुसई – मुसलमान
नोट – इस कहानी के पहाडी शब्दों और वाक्यों को जानबूझकर हिन्दी में अनुवाद नहीं किया गया है. आपको जो भी वाक्य समझ में ना आये उसका मतलब आप कमेन्ट बाक्स या ओयेबांगडू के फेसबुक पेज पर पूछ सकते हैं.
#तरदा तो तरदा ठैरे,गजब लिख देने वाले ठैरे तरदा को नमन ।।
अच्छी कहानी है। वैसे इसके इस तरीके के समापन का आभास मुझे कुछ-कुछ हो गया था।
धन्यवाद
Nice story.
Kumauni shbdo ne kahaani me itna apnatv LA diya hai jaise apne Ghar ka hi vakeya ho.
Lekhak ko saadhuwaad!!
बहुत बहुत धन्यवाद
बहुत बहुत धन्यवाद