इस कहानी के लेखक लवराज वैसे तो स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में कार्यरत लेकिन लिखने का भी शौक रखते हैं.ये मुनस्यारी के किस्सों ई आखिरी किश्त है,किस्सागोई के ऊपर .
किस्सागोई कोई खेल नही है साहब, किस्से सुनाने के लिये जरूरी है किसी जमाने में किस्सों का हिस्सा होना .किस्से साथ बैठने से बनते है,भटकने से बनते है,जिंदगी को जीने से बनते है.आवश्यकता अगर आविष्कार की जननी है तो अनुभव किस्सागोई का बाप है.जिसे जिंदगी ने रगड़ा नही है वो किलमोड़े की जड़(मतलब क्या ख़ाक) आपको किस्से सुनायेगा. इधर घर जाने पर देखता हूँ कि वो सारे ठोर ठिकाने(अड्डे) जहाँ किस्सागोई के रंगरुटों की भर्ती होती थी,वीरान हो गये है.
कभी कभार एक दो बच्चे दिखते भी है तो मोबाइल में सर घुसाये हुए.ओ ईजा को हनी सिंह का यो यो निगल गया है. इन दिनों अँगीठी की जगह भी हीटर ने ले ली है. अलाव तो खैर बीते जमाने की बात समझ लीजिये. एक समय था जब ये अलाव किस्सागोई के इंस्टिट्यूट टाइप की चीज हुआ करते थे. अलग अलग उम्र के लौंडे अलग अलग जगहों पर अलाव जला कर घण्टो बैठे रहते.
अलाव के पास बैठकर ईरान तुरान की बाते की जा सकती थी. किस्सों का कोई खास विषय नही हुआ करता था. वो किसी भी विषय पर हो सकते थे. फिल्मो पर,भूत पिशाचों पर,किसी व्यक्ति विशेष की हरामखोरी पर.आग सेंकते हुए हर रोज अलग अलग किस्म के दावे पेश किये जाते थे. कुछ दावे तो भाई साहब दावे क्या थे,अव्वल दर्जे की गप थे .
उदाहरण के लिये एक मित्र का दावा था कि उसके अमुक अमुक गुरुजी ने पँचाचूली के टुक्के में दो सौ साल तपस्या की है .एक दूसरे मित्र का दावा था कि उसके फलाना फलाना चचा,आदमी को कबूतर बनाने की गुप्त विद्या जानते है .यह भी कि कभी कभार ये चचा खुश हो कर उसे भी कबूतर बना देते है. कबूतर बन कर वो हल्द्वानी नैनीताल तक घूम आता है वगैरह वगैरह .एक गप तो ऐसी भी थी जिसने हमारे बचपन के कई साल गाँव के उड़ियारो के नाम कर दिये .
इस गप का ठीक ठीक साल मुझे याद नही है. बस इतना भर ध्यान आता है कि किसी गपोडियो के सरताज ने एक रोज ये दावा किया था कि हमारे पुरखे गाँव के उड़ियारो में बहुत बड़ा खजाना छुपा गये थे .बस फिर क्या था,तय किया गया कि हर रोज स्कूल से लौटने के बाद एकाध घण्टे इन उड़ियारो में छुपे हुए खजाने को तलाशा जायेगा .ये गप इतना फैली कि इन उड़ियारो में आस पास के गाँवो से आये खोजी दस्ते भी देखे जाने लगे .
कई बार इन घुसपैठियों से हमारी अच्छी खासी झड़प भी हुई .सालो तक हम सबने इन संकरे उड़ियारो में अपने घुटने छिलवाये है.खजाना क्या कभी एक चवन्नी भी नही मिली.इतना जरूर है कि जो यादे बनी वो भी किसी खजाने से हर्गिज कम नही है .
90 का दशक वो समय था,जब हर समूह में एक ना एक गपोड़ी ऐसा हुआ करता था,जो दूसरों के किस्से भी कई बार अपनी आपबीती बता कर सुना दिया करता था .इन गपोडियो को बड़े सम्मान से देखा जाता था. यही अमूमन हर टोली के एल्फा नर हुआ करते थे.किस्सों की प्रमाणिकता से हमे ना कोई लेना देना था ना हमारे पास ऐसे संसाधन थे जिनसे प्रमाणिकता की जाँच की जा सके. वह प्रमाणिकता का नही सम्भवनाओ का दौर था.
मैं कोई तोप कहानीकार या कवि नही हूँ साहब. लिखने का मुझे जो थोड़ा बहुत शौक है उसकी नींव गाँव के उन जलते हुए अलावों के आसपास ही कही पड़ी है. मेरे लेखन में रचनात्मकता मत तलाशियेगा. साफ साफ कहे देता हूँ कि मेरी कहानियों या कविताओ में आपको भाँग के दाने जितना भी वजन नही मिलेगा. अगर आप भाषा के जानकार है तो उल्टा मात्राओ की एकाध किलो गलतिया जरूर मिल जायेंगी. मैं बस झुंड का वो गपोड़ी हूँ जो किसी और के किस्से आप को सुना रहा है.
अब जब किस्सागोई का कच्चा मसाला मेरी जमीन से खत्म सा होता जा रहा है,मैं डरता हूँ कि कही किस्सागो नाम की नस्ल ही खत्म ना हो जाये.
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