अपनी जिन्दगाणी में मटरगस्ती और तफरीबाज़ी के शोकीन जोधपुर के रहने वाले के डी चारण अक्सर सिनेमा हॉल या फिर टाउन हाल में पाए जाते है जब रात होने पर वहा से भी जबरन निकाल दिए जाते है तो महाशय रात के सन्नाटे में अकेले घूमना पसंद करते है . फिलहाल oyebangdu पर यह एक ऐसा किस्सा ले के आये है जो आपको जीना सीखा देगा .
वैसे भी रेलमपेल वाली जिन्दगाणी में अदीतवार (रविवार) थोड़ा आराम का अहसास कराता है। फिर मंडे से वो ही बासी शेड्यूल शुरू हो जाता है पण सोचो इसी अदीतवार को कोई ऐसा चमत्कार हो जाए जिससे जिंदगी जीणे का सलीका आ जाए और लाइफ के सब दिन संडे जैसे फन डे बन जाए। कुछ ऐसा ही हुआ म्हारे साथे भी , दिन में एक मेसेज आया कि आज शाम जोधपुर के कथाकार रघुनन्दन त्रिवेदी की कहानी पर बनाया नाटक “खांचे” टाउन हॉल में खेला जाएगा, बस फिर क्या था बांदरे को जैसे बागीचा मिल गया। मुझे तो बस टाऊन हॉल जाने का मौका ही चाहिए। ठीक साढ़े सात बजे से पहले ही पूग गए हम भी हॉल में और वहां जाणे के बाद किसी काका जी ने ये बताया कि आजकल ये नाटक वाले फोकट में नाटक नहीं दिखाते है। थोड़े होशियार हो गए है इसलिए टिक्कस(टिकट) लेणा पड़ेगा लेकिन पीस्सा बच गिया आज बिना टिक्कस ही एंट्री हो रही थी। जे बात आछी भी लागी की आजकाल हर चीज का जोरदार पीस्सा(पैसे) लागे तो नाटक वाले बेचारे फोकट में क्यों दिखाए अपणा नाटक ?
खैर, नाटक शुरू हुआ और मैं ही नहीं सगळा(सब) लोग जियां सपणे में चला गिया। अस्सी बरस का बाबोसा से लेकर अठारा बरस के छोरे-छोरियों ने भी यही लाग्या कि भई ! जिंदगी एक बार ही मिलती है और हम खाली कल के चक्कर में आज को बरबाद कर देते है। हमें भविष्य की चिंता तो करणी ही चाहिए पण (लेकिन) अपना वर्तमान भी मजे से जीवणा चाहिए वरना कल जब बुड्ढे हो जाएंगे तो ये याद करते करते प्राण गालियां निकालते हुए बहुत दोरे (कठिनता) निकलेंगे कि कुछ किया ही नहीं। कैरियर और नामी हस्ती बनने के चक्कर में पड़कर वो नहीं किया जो म्हारे हिवड़े में मोर सा बण के नाच और गा रहा था।
ये नाटक आपको बचपन से लेकर जो जीवन अभी तक जिया ही नहीं है उसकी भी सेर पर ले चलता है। त्रिवेदी ने कहाणी में लोकरंग ऐसे भरे है कि हर टेम यही लगता है कि मंच पर आप ही एक्टिंग कर रहे है। जैसे बचपन में सतोलिया का खेल, तालाब के पास की बातें, दोस्तों के सीक्रेट्स, पतंगबाजी के बहाने किसी को छेड़ना, मास्साब की नक़ल उतारना, दोस्त के पैसों से फिल्म देखना आदि ऐसे किस्से है जो हर किसी की जिंदगी में बेरोजगारी और चुनावों की तरह आते ही है।
भई बांगड़ू ! म्हें तो आज या ही बात नाटक सूं सीखी कि कल के खातिर अपना आज क्यों बर्बाद करें ? हाँ, जिंदगी में कुछ अच्छा करना है लेकिन अपने सपनोँ को मारकर नहीं उन्हें जी कर ही आगे बढ़ना है।
जोरदार
रेलमपेल वाली जिन्दगाणी में मजे लेना मत भूल
ओये..बढ़िया लिखा है …छोरे
नयी स्टाइल,, सुन्दर व् यथोउचित देशज शब्दों का चयन
बांगड़ू इसे दाल बाटी चूरमा खिला दियो..
Acchho laago …bhaayLaa !!
जोरदार बाबोसा