बांगड़ूनामा

लाला,ललाईन और लल्ला

जुलाई 19, 2017 कमल पंत

किसी के पास खोने को कुछ नहीं होता और कोइ सब कुछ खोना चाहता है, आपको पहली कैटेगरी के मानुष तो बहुत मिलेंगे लेकिन दूसरी कैटेगरी के मानुष किस्मत वालों को ही मिल पाते हैं, एसा ही एक किस्मत वाला मैं भी था जिसे एक एसा बन्दा मिला जिन्दगी में जिसे अपना सब कुछ खोना था लेकिन पाना कुछ नहीं था . वह कहता था बाप ने जिन्दगी भर इतनों को लूटा कि भगवान ने उसके पास मुझे भेज दिया प्रायश्चित के लिए. तब घर का राशन, राशन कार्ड पर आता था और लिमिटेड आता था, बड़े बूड़े कहते थे ये सरकार की करनियों का फल है जो राशन आज एसे खरीदना पड़ रहा है. किसानों की आत्महत्या की खबरें आल इंडिया रेडियो या अखबार सुनाते रहते थे और उसी की देखा देखी बड़े बूड़े भी हमें सरकार के खिलाफ भडकाने का पूरा काम किया करते थे .

उसका जन्म उस एरिया के एकलौते सरकारी सस्ते गल्ले की दूकान के मालिक के घर हुआ था और मेरा उसके पास आने जाने वाले गाँव के पंडित के यहाँ. अब उस लाला की व्यस्तता का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि उसने अपनी जिदंगी में बस एक लडका पैदा करने भर का ही समय निकाला जबकि उसके आस पडोस में रहने सभी लोगों के कम से कम चार बच्चे हुए. हालांकि सरकार ने ‘हम दो हमारे दो’ वाली पालिसी नहीं निकाली थी लेकिन फिर भी लाला इतना व्यस्त था कि दुसरे बच्चे का समय नहीं निकाल पाया. इसका परिणाम यह हुआ कि ललाईन का पूरा ध्यान अपने लल्ला पर लगा रहा. वह अपने लल्ला से बार बार कहती ‘बेटा जिन्दगी में कमाना ही सब कुछ नहीं होता ,दान धरम पुण्य भी करना चाहिए’ अपनी माँ की इस बात को लल्ला ने बड़े सीरियसली लिया और मुझ पंडित पर उसने सारा दान धरम पुण्य किया.

खैर ये वो दौर था जब सरकार के गोदामों से अनाज इन लालाओं के गोदाम में प्रति व्यक्ति के हिसाब से आता था. लाला हर किसी राशन कार्ड होल्डर के राशन में झोल करता और कहता कि सरकार की तरफ से एसा ही आया है. हम माने तब भी ना माने तब भी लेना वही राशन था. इसलिए हम ज्यादा चूं चा करने में विशवास नहीं रखते थे. नगर में कोइ ख़ास अच्छा प्राईवेट स्कूल नहीं था , नगर के बाहर जरूर दो तीन अच्छे कान्वेंट स्कूल थे मगर ललाईन ने अपने एकलौते लल्ला को उतनी दूर भेजने से साफ़ मना कर दिया फलस्वरूप मुझ दरिद्र पंडित के साथ उस लाला का एडमिशन हो गया. दोनों एक ही  सरकारी स्कूल में पढने के लिए पहुँच गए.मैं पंडित जरूर दरिद्र था लेकिन घर वाले रोज सुबह सर्द दिनों में मुझे नहलाकर मेरे माथे पर तिलक लगाकर मुझे धुले कपड़ों में स्कूल पहुंचाते थे, लाला को पूरी क्लास में मैं ही सबसे अच्छा और साफ़ सुथरा बालक लगा तो उसने टीचर से कहल्वाकर अपने सुपुत्र को मेरे बगल में बैठाने की व्यवस्था कर दी. इस तरह लल्ला और मेरी दोस्ती की शुरुवात हुई. लाला से सभी लोग अच्छी बनाकर चलना चाहते थे क्योकि महीने का राशन उसके हाथ में था इसलिए टीचर भी उसकी बात मानते थे. अब लाला के लल्ला को सारी फैसिलिटी अकेले तो नहीं मिलेगी. इसलिए उसके बगल में बैठे मुझ दरिद्र की भी अच्छी कटने लगी थी, लाला के घर से दिन में आना वाला टिफिन हम दोनों का टिफिन होता. घर में भले ही मुझे सूखी रोटी खाने को मिले मगर इधर स्कूल में घी से सने पराठे खाने को मिलते थे. इसे कहते हैं भाग(भाग्य). लल्ला घर से जितना सम्पन्न था उससे कहीं ज्यादा दिल से सम्पन्न था. उसे ये परवाह कभी नहीं हुई कि उसकी लाई चाकलेट मैं खा गया या उसके लाये महंगे वाले चिप्स पूरी क्लास ने लपेट लिए. वो तो बस खुद को लुटाने के लिए स्कूल आता था.

अपनी इस दरियादिली का पहला उदाहरण उसने पहली क्लास में दिया, जब रसना का एक महंगा वाला जूस वह अपनी वाटर बोतल में भर कर लाया. हम सरकारी स्कूल के बच्चों के पास नार्मली वाटर बोतल होती नहीं थी और उसके अंदर जूस का भरा होना तो नामुमकिन सी बात थी. पूरी क्लास में गिनती के चार वाटर बोतल हुआ करते थे. एक कौशलेश के पास क्योंकि उसके पिताजी बेवडे थे इसलिए घर में बोतलों की कोइ कमी नहीं थी, एक दिन किसी शराब को उसके पिताजी कांच के बदले प्लास्टिक की बोतल में ले आये और वही प्लास्टिक की बोतल को उसकी मम्मी ने उसका वाटर बोतल बना दिया. वैसे शुरू शुरू में उस बोतल से जिस जिस ने पानी पिया वह बेहोश होकर गिरा एसा किस्सा है मगर इसकी सत्यता की जांच होना अभी बाकी है. दूसरी वाटर बोतल लाया करता था मगरू उसके पिताजी का कबाड़ का धंधा था तो उसमे जो भी प्लास्टिक की बोतलें आती थी वह मगरू की वाटर बोतल बन जाती थी. तीसरी वाटर बोतल रहा करती थी जय के पास उसकी माँ किसी बड़े घर में झाड़ू लगाती थी तो वह वहां से बोतल ले आयी थी. बाकी चौथा लल्ला ही था जिसके पास वाटर बाटल थी. बाकी हम जो बचे हुए बच्चे थे हम स्कूल के नल से पानी पिया करते थे, घर से हमें एक गिलास दे दिया जाता था जिसे बाईज्जत घर पहुंचाने की जिम्मेदारी भी हमारी रहती थी. हमारे लिए स्कूल का नल जिंदाबाद था.

स्कूल में लल्ला उस दिन रसना का जूस ले आया था ,हम लोगों ने रसना कभी देखा नहीं था, चौक चौराहों पर रेडियो में कभी कभार सुन लिया करते थे ‘रसना रसना‘ इससे ज्यादा हम रसना के बारे में कुछ नहीं जानते थे. लल्ला जब रसना लाया तो उसने सबसे पहले हम सबको रसना के बारे में बताया कि ये आखिर चीज क्या है और उसके बाद उसने हमें रसना चखाई. बस चखते चखते ही उसकी रसना खत्म. लेकिन लल्ला का ये बड़ा दिल ही था कि उसने शिकायत नहीं करी. बस दो घूंसे मेरी पीठ में मारकर बोला ‘अबे तुझे दी थी पूरे क्लास को पिलाने की क्या जरूरत थी ‘

इसके बाद लल्ला क्लास में प्रसिधी पाता गया, हर अगली क्लास में वह रोजाना कुछ ना कुछ एसी चीज ले आता जो हम लोगों ने देखी ही ना हो. दूध में मिलाने वाला हार्लिक्स हो या चाय में मिलाने के लिए एवरीडे का दूध पावडर, पेप्सी की प्लास्टिक की बोतल हो या किट केट के चाकलेट, सोया से लेकर एलपेंलिबे,एक्लेयर्स जैसे ना जाने कितनी अंगरेजी नाम वाली टाफियां हमें उसी ने खिलाई. हम तो दूकान से हमेशा ढिशुम टाफी या जाय टाफी खाने के आदि हुआ करते थे, एक रूपया पास में हुआ तो पोपिंस नाम का अंगरेजी लालीपाप हमें ध्यान रहता लेकिन ये लल्ला ही था जिसकी बदौलत एक्लियर्स, किटकैट, क्रंच जैसी चीजें हम खा पाए.

लल्ला को कभी इस बात का गम नहीं रहता कि वह हम पर लुटा रहा है. पांचवी क्लास तक आते आते वह हमारा अघोषित नायक बन चुका था, लल्ला जो बोले हम बस वही किया करते थे. वह खे कुए में कूद जाओ तो हम वह वह भी कर दें क्योंकि लल्ला उसके बाद हमें इनाम देता.पांचवी के बोर्ड के बाद यह तो तय था कि लल्ला किसी बड़े स्कूल चले जाएगा. क्योंकि उस इलाके में कुछ अच्छे स्कूल खुल चुके थे. लेकिन लल्ला ने कमाल ही कर दिया. जिद में अड़ गया कि पंडित का लडका जहाँ जाएगा मैं भी वही जाऊंगा. अब पंडित के लड़के के लिए तो एक ही स्कूल था. और लाला नहीं चाहता था कि उसका लल्ला उस सरकारी स्कूल में पढ़े इसलिए लाला ने अपनी जेब से पैसे लगाकर मेरा और लल्ला का एडमिशन प्राईवेट स्कूल में करवा दिया.ये लल्ला का पहला बड़ा एहसान था मुझ पर क्योंकि अगर सरकारी स्कूल में पढ़ा होता तो मैं भी कहीं पंडित होता, सरकारी स्कूल में सरकार ने अपनी तरफ से बेस्ट टीचर तो दे रखे थे लेकिन उन बेस्ट टीचरों ने पढ़ाने के लिए खुद के एसिस्टेंट रखे हुए थे. टीचर महीने में एक दिन आते थे बाकी दिन एसिस्टेंट से काम चलाना पढ़ता था जो खुद इंटर स्कूल में पढ़ रहे होते थे.

लल्ला की बदौलत उस सरकारी स्कूल से मुक्ति तो मिली लेकिन प्राईवेट के और भी कई झमेले थे. शहर के सारे गिने चुने रईसों के बच्चे यहाँ पढ़ा करते थे और मेरी बस फीस लाला के यहाँ से आती थी बाकी सभी खर्चे यहाँ खुद के पिताश्री ने उठाने थे जो पंडिताई का काम किया करते थे. लेकिन जो जुगाड़ ना कर पाए वह कैसा पंडित. पिताश्री ने स्कूल के मालिक से कहकर मेरे सारे साईड खर्चे फ्री करवा दिए. स्कूल भवन में दोष बताकर वहां दोष मुक्ति पाठ करवा दिया, हर महीने दुर्गा शप्तशती का पाठ करवा दिया,उसे शनी राहू केतु से इतना डरा दिया कि स्कूल मालिक पिताश्री की जेब में आ गया. वैसे स्कूल मालिक सिर्फ दो महीने में समझ गया था कि उसे ठगा जा रहा है मगर उसके समझने तक मेरा काम हो चुका था.

स्कूल के ही कुछ टीचर अब मेरे केयर टेकर थे, मेरा काम स्कूल में करवाने से लेकर मेरे टिफिन ,ड्रेस अदि का वह खूब ख्याल रखते थे, फीस लाला के यहाँ से आ ही रही थी अब मैं भी खुद को अम्बानी की औलाद समझने लगा था और लल्ला से थोडी दूरी बनाकर चलता था, यहाँ लल्ला की पुरानी ट्रिक नहीं चल रही थी क्योंकि यहाँ रोज हार्लिक्स पीने वाले बच्चे आया करते थे, हर बड्डे में यहाँ किटकेट के दर्शन हो जाते थे.

क्रमशः

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