बांगड़ूनामा

किरन-धेनुएँ- नरेश मेहता

अक्टूबर 5, 2016 सुचित्रा दलाल

नरेश मेहता उन चुनिन्दा लेखको में से एक थे जिनकी भारतीयता में गहरी जड़े थी.  प्रकृति से खासा लगाव रखने वाले नरेश मेहता ने आधुनिक कविता को नयी व्यंजना के साथ नया आयाम दिया। ओएबांगड़ू आज पेश कर रहा है उनकी कविता किरन-धेनुएँ

उदयाचल से किरन-धेनुएँ
हाँक ला रहा वह प्रभात का ग्वाला।
पूँछ उठाए चली आ रही
क्षितिज जंगलों से टोली
दिखा रहे पथ इस भूमा का
सारस, सुना-सुना बोली

गिरता जाता फेन मुखों से
नभ में बादल बन तिरता
किरन-धेनुओं का समूह यह
आया अन्धकार चरता,
नभ की आम्रछाँह में बैठा बजा रहा वंशी रखवाला।
ग्वालिन-सी ले दूब मधुर
वसुधा हँस-हँस कर गले मिली
चमका अपने स्वर्ण सींग वे
अब शैलों से उतर चलीं।

बरस रहा आलोक-दूध है
खेतों खलिहानों में

जीवन की नव किरन फूटती
मकई औ’ धानों में
सरिताओं में सोम दुह रहा वह अहीर मतवाला।

 

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