पिथोरागढ़ जिले के खूंखार लिख्खाड प्रशांत उप्रेती जब खेलने में आते हैं तो फ़ुटबाल को और ज्यादा गोल बना देते हैं और लिखने में आते ही कलम तोड़ कापी घिसाई चालू कर देते हैं. फिलहाल वह बता रहे हैं फ़ौजी कैसे बनते हैं पहाड़ों में . पढो शायद आप भी फ़ौजी बन जाओ इसी बहाने . आजकल भारतीय फौज और फौजी चर्चाओं में हैं। इसी में जोड़ते हुए पहाड़ी(उत्तराखण्ड) फौजियों की कुछ बातों के बारे में दो-चार बातें हो जाएं। हमारे यहाँ फौज की तैयारी वाले छौने(लड़के) बार-तेर (12-13) वर्ष की उम्र से ही तैयारियों में जुट जाते हैं। दौड़ कठिन होती है, इसलिए तैयारी बचपन से ही चालू हो जाती है। गांवों, कस्बों की बाहरी सड़कों पर सुबह 4 बजे ही आपको सैकड़ों युवक पूस महीने की ठंडी सुबहों में पसीने से भीगे हुए दौड़ते दिख जायेंगे। उसके बाद चिन अप और पुश अप अलग से। कहने का मतलब है, जब हम सामान्य लोग सोकर उठते हैं ,तब तक वे अपनी तैयारी पूरी कर चुके होते हैं।
उसके बाद दिन शुरू होता है ईजा की, “हं ला त्वेस शरम नाहतिनी, इतुक देर तक की करछा तुमुन वाँ?”(तुझे शर्म नहीं हूं क्या, इतनी देर तक वहां क्या करते हो?)। मुस्कुराता हुआ छौना ,” के नै ली, हाथ लगा हालछि? डाब्बा में हाल दिए दूद, मैं चहा खा बेर दी ऊंलो।” (कुछ नहीं रे,तूने दूध निकाल लिया क्या? बर्तन में डाल देना, मैं चाय पीकर दे आऊंगा)। फिर वही छौना दोबारा चार-पांच किलोमीटर पैदल जा कर दूध दे आता है। वापस लौटते हुए 8 बज ही जाते हैं लगभग। लेकिन देखने वाली बात यह होती है कि चेहरे पर थकान की एक लकीर भी देखने नहीं मिलती। सुबह 9 बजे ही परिवार के साथ दाल -भात, घी चुपड़ी हुई रोटियां, दही बड़े चाव से खाते हैं।
फिर ईजा खेत चली जाती है, फौज से रिटायर बौज्यु (पिता) बैल लेकर ईजा के पीछे पीछे। छौना आपने स्कूल निकल लेता है।
स्कूल भी सामान्य नहीं होते हमारे यहाँ, क्योंकि यहाँ ‘स्कूल’ नहीं “इस्कूल” होते हैं और इस्कूल में ‘सर’ नहीं मसाप(मास्साब) होते हैं। प्रार्थना के बाद उपस्थिति(अटेंडेंस) दर्ज होती है, उसके तुरंत बाद छौना एंड कंपनी(मित्र मंडली) मसापों की नज़रों से बचते बचाते क्लासरूम की बजाय जंगल का रुख करते हैं, क्योंकि या तो पढ़ने में मन नहीं लगता, या फिर कंपनी(मित्र मंडली) का प्लान पहले ही बन चुका था(सुबह दौड़ते हुए)।
जंगल जाकर मौसम के अनुसार गांव में होने वाले फल ,हरिया खुर्ष्यानी(हरी मिर्च) वाले नमक के साथ एन्जॉय किये जाते हैं। तभी अन्य छौनों में से एक हमारे वाले छौने से ,”हं ला,तुमार त बौमुक्त कांकड़ा लाग रयान, ल्युनै कन तैं? गोरून खिलून तक हमारा गाला में ज कोच्युनै।” ( हाँ भाई,तुम्हारे यहाँ तो बेशुमार ककड़ियाँ लगी हुई हैं,लाता क्यों नहीं? गायों को खिलाने से अच्छा तो हमारे लिए ले आता) । इसके जवाब में अपना छौना,”ईजा हाणछी यार, बेलि ले डण्डया राख्यूं ।” (मां मारती है यार,कल भी डंडे से पिटाई हुई)। इन्ही बातों के साथ खाते खिलाते इंटरवल हो जाता है। छौना एंड कंपनी ,घंटी की आवाज़ सुन कर फिर इस्कूल की तरफ चल पड़ते हैं क्योंकि अब फिर से अटेंडेंस ली जाएगी। कुछ ऐसे ही दिन गुज़रते हैं,क्योंकि यही लिगेसी रही है छौने के गांव की।
गांव के सौ में से पैंसठ लड़के फौजी हैं दो चार कहीं चौकीदारी में लगे हुए हैं, बांकी के 30-32 लड़के जो बेरोजगार हैं, सरकारी फाइलों में उन्हें किसान कहा जाता है। इसके अलावा अपना छौना खेत के सारे कामों में निपुण है जैसे-रोपाई लगाना(धान के पौंधों को रोपना), निराई, गुड़ाई, फट्याला लगाना( चादर को पंखे की तरह प्रयोग करते हुए अनाज से भूसा अलग करने की पहाड़ी कला) और अखोल(ओखली) कूटना। खाना भी स्वादिष्ट पका लेता है जैसे- शिकार-भात(मीट-चावल), पल्यौ भात(कढ़ी चावल), मडुए की रोटी, जौला(पहाड़ी व्यंजन) आदि। (अपने बच्चों से छौने का कंपेरिजन करके देखिएगा एक बार)
पहाड़ों में रात जल्दी हो जाती है, सामान्य परिवार 9 बजे से पहले ही रोटी खा कर बिस्तर पर विराजमान हो जाते हैं। अपना छौना भी 10-12 रोटियां खाकर बिस्तर पर और उसे लेटते ही नींद आ जाती है। क्योंकि फिर से सुबह होगी और फिर से वही दिनचर्या चालू, जब तक वह भर्ती नहीं हो जाता। लेकिन उसे इस दिनचर्या से कोई ऊब नहीं है, उसे पीछे मुड़कर देखने का समय ही नहीं। समय और परिस्थिति उसे इतना मज़बूत बना देती है कि जाड़ों(सर्दियों) में सुबह के 6 बजे 1-2 डिग्री के तापमान में वह गांव के धारे(नेचुरल वाटर सोर्स) पर आधा घंटा आराम से नहाता है,उसे ठण्ड लगती ही नहीं, इसलिए एक बात नोट करने वाली है; पहाड़ी को ठण्ड से डर नहीं साहब, बस गर्मी में थोड़ा असहज हो जाता है, लेकिन फिर वही मेहनती इंसान, तुरंत एडजस्ट कर लेता है।
चलो 2 साल बाद अब फौज की रिक्रूटमेंट का इश्तेहार भी आ गया, छौने की तैयारियां अभी चरम पर हैं। दौड़ में अव्वल(एक्सीलेंट) आया छौना, फिर मेडिकल भी हो गया, लिखित परीक्षा के लिए पड़ोस के गांव वाले मसाप ने पढ़ा दिया, वहां भी नैय्या पार लग गयी। बधाई है,भर्ती हो गया अपना छौना। लेकिन बात अभी ख़तम नहीं हुई, छौना एंड कंपनी में 5 छौने और भी तो थे। अभी 6 में से सिर्फ अपना वाला ही भर्ती हुआ है, बचे हुए 5 में से 1 और ने दौड़ निकाली थी पर वह मेडिकल वाली सीमा में अटक गया; दुःख इस बात यह है कि डिसऑर्डर कुछ ऐसा है कि वह कभी भर्ती नहीं हो पाएगा। बचे हुए 4 छौने अपनी तैयारी चालू रखेंगे। अब जो छौना कभी भर्ती नहीं हो पायेगा, वह बेरोजगार( सरकारी भाषा में किसान) रहेगा, उसका भाग्योदय तब होगा जब उसका चेला(पुत्र) भर्ती होगा।
छौना भर्ती हो गया, रंगरूटी ( रिक्रूटिंग/ट्रेनिंग) भी कर ली एक साल की। अब पोस्टिंग से पहले छुट्टी घर आया है, बूबू( दादाजी या उनके समकक्ष), आमा(दादी या उनकी उम्र की महिला), ईजा ,बौज्यु, काखी(चाची या चाची जैसी), काका, कैंजा(मौसी), बुआ, भिंज्यु(जीजा और फूफा दोनों को यही बोला जाता है) सभी लोग मिलने आये। बौज्यु ने शाम को खस्सी(बकरी) भी दनका ( काट) दी और 2-4 रम की बोतल भी निकाल लाये इलमारी से। खाना पीना चला, दारू शारु के साथ गांव के रिटायर्ड रिटायर्ड फौजियों की टूटी फूटी इंग्रेजी(इंग्लिश भाषा) और भारतीय सेना के किस्सों के साथ रात हो गयी। खा पी के सब लोग सो गए।
10 दिन की छुट्टी मिलने मिलाने में ही बीत गयी, और साथ में ही ईजा की कैंजा ने जो चिन्ह(कुंडली) भेजा था वह छौने के चिन्ह के साथ भी मिल गया, ब्या( शादी) फिक्स हो गया।
छौना अब अपनी पलटन(आर्मी कोर) में ज्वाइन कर चुका है, यहाँ दो तरीके के जीवन शुरू हो गए हैं। यहाँ शादी की तैयारियां, वहां फौज की नौकरी। लेकिन असंतुष्टता कहीं नहीं है।
अगली छूट्टी में ब्या भी हो गया, घरवाली अस्यान(कम उम्र वाली सीधी सादी) है,च्याट्ट गोरी(बहुत साफ रंग वाली) भी है, काम भी सारे आते हैं और दहेज़ में एक टीवी ,एक सोफा सेट,एक फ्रिज और बहुत सारे फूंले(ताँबे के घड़े) भी आये हैं। पहाड़ के गांवों में हनीमून वाला कांसेप्ट अभी चलन में नहीं है। ब्या की चकाचौंध खत्म होते ही सामान्य जीवन चालू हो गया और छुट्टियां भी समाप्त हो गयी। चला अपना फौजी वापस।
समय बीतने के साथ छौने के 2 बच्चे हुए, घरवाली अब ईजा के रोल में आ गयी है क्योंकि ईजा बीमार रहने लगी है और बौज्यु की भी उम्र हो गयी है, साथ ही 19 की उम्र में भर्ती हुआ छौना अब 35 का हो गया है, अगले साल पिंशिन(पेंशन/रिटायरमेंट) आ जाएगा। फिर उसकी घरवाली ईजा का काम संभालेगी, वह स्वयं अपने बौज्यु की तरह काम करेगा उसके बच्चे अब छौने हैं।
शहरों की तरह हमारे पहाड़ी गांवों में जीवन जल्दी नहीं बदलता। अब भी 60 प्रतिशत लोग अभावों में जी रहे हैं,सन्तुष्टता के साथ। फौजियों की पत्नियां सिर्फ निभाने में ही जीवन काट देती हैं। थोड़ा अटपटा लगता है न, जब सुनते हैं कि आज हुए आतंकी हमले में 5 फौजी शहीद हुए हैं। अब ये छौने की जीवन लीला बीच में ही समाप्त हो जाती तो, ईजा ,बौज्यु, पत्नी और छौनों की जिंदगी क्या बन जाती?
क्या सरकार उनकी देखभाल करती? उनके खेतों को कौन जोतता? कोई सहारा नहीं बचता, सब ख़त्म।
बस आज इतना ही। अरे हाँ एक बात बताना तो भूल गया, छौने का मतलब होता है 10-15 की उम्र का नवयुवक।