बिहार के सीवान जिले के राजीव कुमार भारती आजकल पत्रकारिता की पढाई कर रहे हैं और बिहार में ट्रेंड बनते जा रहे पलायन को लेकर चिंतित है.
बाहर लात खायेंगे ,पर बिहार में काम नही करेंगे ! पड़ोसी के खेत जैसे हो गये हो तुम लोग ,जो आता है मूत जाता है .गांव में मजदूरों का आधुनिकीकरण हुआ है, इयरफोन लगाकर भी हैंड्सफ्री पर गाने सुनते है.
आजकल एक ट्रेंड चला है , दिखावे का … गांव से मजदूरों का जत्था जाता है काम करने के लिये और जब उनसे गांव में काम करने के लिये बोलो तो ऐसा लगेगा जैसे बाबू साहब को कील चुभ गयी . सर, मैं काम नही करता अब …मतलब नौबत ये आ गयी है कि बिहार में मजदूरी इतनी अच्छी मिल रही फिर भी लेबर नही मिलते.
बाहर जाने पर उनकी तरक्की तो होती ही है ,पर साला इस मानसिकता का क्या ? धोती छोड़कर टीशर्ट और जीन्स पहन लेने से व्यक्ति के संस्कार और मानसिकता तो बदलने से रही. तो ओवरआल यही लगता है कि दुबे जी गये चौबे बनने और छबे बनकर लौटे . गांव आते है और भोजपुरी में बोलो तो उनका जवाब टूटी फूटी हरियाणवी , पंजाबी या अंग्रेजी में आएगा .जैसे वो लंदन से वकालत कर लौटे हो
कान में दो इयररिंग्स , चार पांच बैंड और 20 रुपया का इयरफोन टांगकर , बाहर से लौटे लौंडे गांव में जब घूमते है तो सबको पता चल जाता ह की लौंडा बाहर मजदूरी करता है .दरअसल ये शर्म वाली बात नही है पर उन्हें यह ग़लतफहमी है कि ऐसे रूप में वह स्वंय को बाहरी दिखाकर इज़्ज़त कमा रहे है.
मैं खुद दिल्ली लगभग 3 साल से रह रहा हूँ पर बिहारी अस्मिता और संस्कृति को एक लेवल तक कायम रखा हूँ. यार अपनी भाषा संस्कृति और सभ्यता के हम परिचायक होते है .वास्तविकता व्यक्ति को उन्नत बनाती है .दिखावा आमतौर पर कुरूप …हां जरूरत के हिसाब से खुद को ढालना जरूरी है पर जहां जरूरत न हो वहां पर इस तरह से खुद को बेवकूफ साबित करना ही है .
आपकी इज़्ज़त आपके हाथ मे है ,गुनाह बिहारी होना नहीं बल्कि बिहारी संस्कृति को गलत ढंग से प्रस्तुत करना है .