वैसे ये दिल से कवि हैं नौकरी से पोस्टआफिस कर्मी और फिलहाल हमारे लिए हिन्दी मारवाड़ी राईटर .नाम है राम लखारा विपुल. रहने वाले हैं राजस्थान के सिणधरी गाँव के . मारवाड़ की खूबसूरत बोली को हिन्दी में लपेट कर इन्होने जो साईकिल सीखने का किस्सा सुनाया है पढने लायक है .
हमारा टेम था। आज से 15 बरस पहले बालोतरा की गलियों में अपने ममेरे भाई बहिनों के साथ हमने भाड़े पर साईकिल लेणे की सोची। अब सोच तो ली। पांच छ छोटे छोटे छोरे छोरियां थे हम। दो दो के ग्रुप में एक एक साईकिल किराये पर ली। 5 रू एक घंटा और 3 रू आधा घंटा।
किराये पर साईकिल लेने का शौक चर्राया हुआ रहता था। चलाणी आती थी या नहीं आती थी यह बाद की बात थी। किराये की साईकिल लेकर बालोतरा की गलियों में लगे घूमणे। चलाणी तो आती नहीं थी तो हैंडल पकड़कर ही साईकिल को पैदल चला रहे थे। मजे की बात यह कि पैदल साईकिल चलाने में भी हम जोड़ीदार झगड़ रहे थे। हम सब में से एक बड़ी बहिन कविता साईकिल चलाणा जाणती थी। सब उसे अपनी साईकिल चलाणे के लिए दे देकर राजी होए जा रहे थे। तब यह भी राजी होण का कारण होता था कि किराये पर साईकिल आपने ली हो और कोई दूसरा चला रहा हो।
तो इस तरह हमने पहली साईकल भाड़े पर ली थी और उसे पैदल ही बालोतरा की गलियों में घूमाया था।
दूसरे दिन गांव आए मालूम किया कि वहां कोई साईकिल मिलती है कि नां? पता लगा कि एक दूकान है बाबू भाई कि जो साईकिल भाड़े पर देता है। पहुंच गए अकेले ही साईकिल किराये लेने खातर। साईकिल किराये पर ले ली मगर चलावें कठै?
रोड़ पर चलाये तो कहीं पप्पा न देख ले।
बताते चले कि उस समय पप्पा की तरफ से साईकिल चलाने पर पूर्ण रोक थी, इस रोक के पीछे उनका लाड़ ही था कि कहीं हमें चोट न लग जाए मगर आत अब समझ आवै है।
तब पप्पा दोस्त नहीं होते थे, दुश्मण भी नहीं थे मगर उनकी आंखो में अजब सा अनुशासन होता था जो डराता था।
तो हमने कळेजा दिखाकर अकेले साईकिल किराये पर उठा तो ली मगर पप्पा के डर से रोड़ पर न चला पाए। तो ले गए अपनी किराये की सवारी को गांव की गलियों में जहां रोड़ नहीं धूड़ (रेत) होती थी और हर दस फीट के बाद हर घर से एक खाळी (नाली) निकलती थी। कसम से ओलम्पिक की तैयारी गांवों में की जा सकती थी।
वहां चलाणै लगे पर बीस खाळियां पार की बीस बार उतरे और बीस बार गिरे भी।
दिमाग काम नहीं करे कि हाथों से हैंडल पकड़े या पैरों से पैंडल मारे। और इस कशमकश के बीच नजरे हैंडल पर रखे या पैंडल पर या सामने, धड़ाम से नीचे गिर जाते।
गोडे (घुटने) छिलाए, खुहणी (कोहनी) छिलाई। शरीर ऐसा हो गया कि पता ही नहीं चले साईकिल चलाकर आए है या हल्दीघाटी का युद् लड़कर।
दूसरे दिन बाबूभाई के पास नहीं गए। फिर से पता किया तो मालूम हुआ कि धाई (दादी) के घर के पास एक और छोटी सी दूकाण है जहां साईकिल किराये पर मिलती है।
पहुंच गए, पप्पा से लुक छिप कर। साईकिल किराये पर ली। यह जगह थोड़ी पसंद भी आयी। गांव के एक कोणे पर थी जहां पप्पा का आना ना के बराबर था।
पहले दिन की लगी चोटों से अब भी शरीर दुखता था, फिर भी क्रेज था । साईकिल चलाणा कैसे सीखा जाए? कल वाली यादे तो दुःख दायी थी। तभी दिमाग में बत्ती जली और एक आईडिया छपाके मारकर दिमाग में आया।
साईकिल को ले गए जमी हुई धूड़ के टीले पर। चढाई पर पहुंचकर बैठ गए, हैंडल पकड़कर पैर ऊपर कर लिए और चल पकड़ी साईकिल। इस बार थोड़े सफल हुए। पैंडल मारने का तो झंझट ही कोणी केवल हैंडल पर ध्यान दे रहे थे। वापस पैदल साईकिल को ऊपर खींचते और फिर से ढाळ (ढलान) पर चल पड़ते।
तीन दिन अभ्यास किया। हैंडल पकड़ने का कुछ सलीका आया। गोडे और खुहणी तो इसमें भी खूब छिलाई।
चौथे दिन नैनों (छोटे) भाई जीतू को साथ लाया। उससे कहा कि देख भाईला तुझे पीछे से पकड़ना है और धक्का देणा है।
एक दिन में ही बेचारा थक गया, अगले दिन आने का कहा था मगर आयो कोणी।
खुद ही कभी ढाळ पर उतरे। कभी 20 खाळी वाली गली से गुजरे और सीखे।
किराये की साईकिल ने हमकों पहली गाड़ी का मजा दिलाया। गिरे, उठे, चले …… और आखर सीख गए।
अब तो कार चलाते बखत (समय) एक पैर बे्रक पर, दूसरा एक्सीलेटर पर, हाथ स्टीयरिंग पर, नजर सामने और साईड कांच पर, कान फोन पर और दिल किसी के ख्यालों में खोया रहे है फिर भी सब कुछ बैलेंस में।
मगर यह तब की बात थी जब साईकिल भाड़े पर मिलती थी और रोड़ धूड़े की होती थी।