यंगिस्तान

गोमती से गोरी तक – आख़िरी भाग

अक्टूबर 4, 2016 ओये बांगड़ू

डोयाट के इस भाग में हमने लखनऊ गोमती से पहाड़ों की गोरी नदी तक का सफर तय किया . आख़िरी भाग में डोई (लेखक) आपको भारत के पड़ोसी देश नेपाल भी लेकर चल रहे हैं . डोई की यात्रा के पहले दो भाग आप इधर पढ़ सकते हैं

गोमती से गोरी तक – भाग 2

मैंने भी हामी भरी और गाड़ी मोड़ दी धारचूला की तरफ. जौलजीबी से जब आप धारचूला की तरफ चलते हैं तो एक तरफ काली नदी आपके साथ साथ चलती है , और दूसरी तरफ ऊँचे ऊँचे पहाड़ ! लेकिन जौलजीबी से धारचूला का रास्ता काफी थकाऊ है ,खराब रोड के कारण , बलुवाकोट में रुक जीना जी(लोकल दुकानदार) के वहां दाल भात का फ्यूल भर के हम चल दिए धारचूला की तरफ , समय तीन बजा होगा जब धारचूला पहुँचे और उसी दिन मुझे मुनस्यारी पहुँचना था ! धारचूला कैलाश मानसरोवर यात्रा का एक पडाव है , यहाँ काली नदी भारत नेपाल का बॉर्डर बनती है धारचूला के नाम का एक क़स्बा दार्चुला नेपाल में भी है , तो धारचूला पहुच कर आखिर कार काली नदी पर बने एक पुल को पार कर मैं नेपाल में था ! पहली बार उस पर जाने का अलग रोमांच था , नेपाली टोपी लगाये दुकान दार दूर से हमें टूरिस्ट समझ कर अपने पास बुला रहे थे , थोड़ी देर मार्किट देखने के बाद एक दूकान में रुके, तो नजर पड़ी नेपाल की पहचान ढाका टोपी पर , अब नेपाल से यादगारी के तौर पर कुछ तो ले जाना था तो एक टोपी ले ली , असल में नेपाल से बाहर ये ही ढाका टोपी नेपाली की पहचान है ! शाम का करीब ४ बज गया था और मेरा ठिकाना १०० किलोमीटर दूर था , जाड़ो का समय था तो मात्र ढेड घंटे का उजाला बाकी था , तो वापसी करना ही बेहतर समझा !वापस उसी रस्ते से जौलजीबी पहुचे , जौलजीबी से एक रास्ता मुनस्यारी को जाता है और दूसरा धारचूला को आता है !

अँधेरा होने को था और मुझे मुनस्यारी में अपना ठिकाना भी ढूंढना भी था , जौलजीबी  से मुनस्यारी की तरफ चलने पर गोरी नदी साथ साथ चलती है , असल में ये घाटी इलाका था जिसका फैलाव मुझे धारचूला के मुकाबले ज्यादा लगा , औए धारचूला से ठंडा भी ! रस्ते भर गाँव पार करते हुए गोरी के किनारे गाड़ी दौड़ती रही , अब तक थकान का कुछ असर भी शुरु हो गया था , जौलजीबी से मुन्सियारी के रूट में मदकोट अहम् पड़ाव है , जहां २०१३ आपदा की तस्वीर अभी भी है , मदकोट तक अँधेरे में घेर लिया था और असल सफ़र तो अब शुरु हुआ था , रास्ते का पता नहीं , अँधेरा अलग ! मदकोट से एक दो लोगों से रास्ते का पता भी लिया , चांदनी रात थी उस दिन , पहाड़ो पर पढ़ती चंद्रमा की रौशनी गजब कर रही थी , लेकिन अब स्थिति विकट हो चुकी थी , सुनसान जंगल का रास्ता , और अँधेरा ,मुझे डर ने जकड लिया , डर पर कण्ट्रोल करने के लिए गाने गुनगुनाने लग गया , सात बजने को आये ठण्ड से हालत और ख़राब , कहीं रुक भी नहीं सकता था , वैसे पहाड़ो पर इससे पहले भी रात को फस चूका था , लेकिन वो इलाके आबादी से पास थे , लेकिन यहाँ दूर दूर तक कुछ नहीं था ! और इसी उठा पटक में मैंने एक कट गलत ले लिया जिस पर करीब ५ किलोमीटर आने पर लगा मैं तो खेतों में गाड़ी चला रहा हूँ , जंगली जानवरों का अलग डर , खैर अपना पहाड़ होने की वजह से और कोई डर नहीं लगा , तो मुझे सारा डर जंगली जानवर का था , मुह से गानों की आवाज अब तेज होने लगी थी , इसी बीच गाडी किसी पत्थर से टकराई और उससे अजीब सी आवाज निकलने लगी , आप सोच सकते हैं क्या हालत हो गयी होगी , लेकिन मैंने भी एक्सीलेटर नहीं छोड़ा , सोचा अब तो मंजिल पहुचने पर ही गाड़ी रुकेगी , खेतो की मेढों में चलते चलते सामने पहाड़ की टॉप पर उजाला दिखाई पड़ा , जान में जान आई मन ही मन अंदाजा लगाया ये तो मुन्सियारी ही होगा ! खैर कुछ अच्छे काम करे होंगे नवम्बर की उस ठंडी रात में मैं मुन्सियारी पहुँच गया ! फिर सबसे पहले ठिकाना ढूंडा , एक होटल में कमरा ले लिया और सच में उसके बाद का कुछ याद नहीं रहा ! सुबह आँख खुली तो सामने खिड़की से पंचाचूली दिखी , भागते हुए होटल की छत में गया , और उसके बाद जो नजारा आँखों के सामने था उसको देखकर अपनी रात की मेहनत पर मुस्कुराया , जैसे मुझे कुछ बेहतरीन मिल गया हो , और सच में ये बेहतरीन था , सामने बर्फ से ढकी पंचाचूली , बाई तरफ नन्दा देवी और त्रिशूल पर्वत, दाई तरफ डानाधार जो एक खूबसूरत पिकनिक स्पॉरट भी है और पीछे की ओर खलिया टॉप . फिर सुबह नास्ता कर मुन्सियारी मार्किट घूम कर मैं मुन्सियारी से पिथोरागढ़ के लिए निकल गया , मुन्सियारी ने अपनी ओर ऐसा खींचा की इसी साल २०१६ में दो बार मुन्सियारी का डोयाट कर चूका हूँ , जिसमे इस जून २०१६ खलिया टॉप का ट्रेक भी है ! और आने वाले दिसम्बर में १५ दिन का एक डोयाट कार्यक्रम फिर बना है ! सही में जिसने मुन्सियारी नहीं कुछ नहीं देखा ऐसे ही नहीं कहते , तो ये थी मेरी लखनऊ से मुन्सियारी यात्रा ,

पार्श्व गिरि का नम्र, चीड़ों में डगर चढ़ती उमंगों-सी। बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा। विहग-शिशु मौन नीड़ों में। मैं ने आँख भर देखा। दिया मन को दिलासा-पुन: आऊँगा। (भले ही बरस-दिन-अनगिन युगों के बाद!) क्षितिज ने पलक-सी खोली, तमक कर दामिनी बोली- ‘अरे यायावर! रहेगा याद?’ (अज्ञेय)

फिर मिलेंगे ऐसी ही किसी रोड पर तब तक डोयाट जारी रहे !!doi yatra 14572022_1152762674778346_1162634642_o14536982_1152762864778327_1785511941_o

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