राहुल मिश्रा के अंदर से आज भी फिरोजाबाद बाहर नहीं निकला है वही पुराने यूपी वाले शौक बरकरार हैं, अभी ये ढल रहे हैं दिल्ली वाले पैटर्न में लेकिन कितना समय लगेगा कह नहीं सकते. फिलहाल कल गोलगप्पे खा कर आये हैं देखिये .
अबे गोलगप्पे का भाव है बे? कल रात को हम अपने एक बुद्धिजीवी मित्र के साथ विचर रहे थे तो गोल गप्पे खाने का मन हुआ! भाई दो प्लेट गोल गप्पे का ऑर्डर दे दिया गया। रेट सुन के हालत ख़राब। 60 रूपये के आठ, साढ़े सात रूपये का एक! फिर भी जोर लगा के आर्डर दे ही दिए।
वो जो बुद्धिजीवी मित्र हमारे साथ थे, वो थोड़ा समाजवादी से हैं घनघोर वाले । सो लगे हमें गरियाने, देने लगे समाजवाद पर भाषण ‘इतना मंहगा गोलगप्पा खाओगे फलां फलां, साढ़े सात में डेढ़ रुपया और मिलाओ तो एक सिगरेट आ जायेगी! हम भी तपाक से बोले! भैया डेढ़ रुपया नहीं साढ़े पांच रुपया मिलाना पड़ेगा, काहे कि आप समाजवादी 13 रूपये का सुट्टा पीते हो। अब उनको जैसे तैसे समझाया कि भाई ये जीभ और पेट समाजवाद नहीं देखता, हम अपनी जिभ्या को कइसे समझाएं?
वैसे हम बता दें कि बुद्धिजीवी कौन होता है, तो भैया बुद्धिजीवी वह प्राणी होता है जो भैंसों को ना गिन कर भैंसों की टाँगे गिनकर चार का भाग देता है (हमारी नज़र में)! और अगर कोई भैंस तीन टांग की ही निकली तो ये अपनी ज़िन्दगी की सारी थीसिस उस भैंस की टांग पर ही निकाल देते हैं फिर बोलते हैं कि इनका मैथमेटिक्स अच्छा नहीं होता।
वैसे भगवान् बचाए ई बुद्धिजीविओं के चंगुल से। असल में मामले को काम्प्लीकेट करनें में इनको अजीब सा आनन्द मिलता है। चलिए छोड़िये वैसे यह आनन्द हम और आप जईसे साधारण आदमी की समझ के बाहर की बात है भाई। कहाँ गोलगप्पे को छोड़ कर हम ई बुद्धिजीवियों की बुद्धि के चक्कर में पड़ गए।
तो गोलगप्पे खाते खाते हमको याद आया कि आगरा और फ़िरोज़ाबाद का दिन जब एक रुपैया के बारह गोल गप्पे मिला करते थे। आज इत्ती तरक्की की तीस रुपैया प्लेट! तीस रुपैया के चार गोल गप्पे, साढ़े सात रुपैये का एक। बहरहाल गोल गप्पे तो लाजवाब थे ही और आठ गोल गप्पे खाने के बाद मजा भी काफी आया।
वैसे अब पूछिए की रात के 11 बजे हम आपको पानी पूरी काहे खाने गए। तो भैया आधुनिक जीवन शैली वाले प्राणी हो गये हैं ना, रति-चर हो गये हैं। रात भर जागना और दिन भर नींद भरी हुई आँखों को मूंद मूंद कर काम करने में जो आनन्द है भाई, उसका कोई तोड नहीं मालिक। पानी पूरी खानें के बाद अमिताभ बच्चन साहब का वही गीत याद आ गया था। इंहा रेती पे पानी का भाव देखो, अरे वही- ई है बम्बई नगरिया तू देख बबुआ और हम यहाँ बोल देते हैं कि ई है दिल्ली नगरिया तू देख बबुआ!