दिल्ली के दिल में बसे दर्द को शब्दों के रूप में बाहर निकाल रहे हैं सुबोध-
खोलो हलके से घर का दरवाज़ा झुकाओ पलकें,
और एक ठंडी सांस छोड़ो और फैलने दो होठों पर,
चार इंच हंसी,
कि ये जो घर है लोहे के दरवाज़े के पीछे ये राख और मलबे का ढेर हो सकता था !!
इसी महीने,
इसी शहर में हुआ था ये कि सैकड़ों लोगों को, किवाड़ के पीछे ढलाव मिले थे,
अब आगे बढ़ो,
सहलाओ बीवी के कंधे मुबारक हो !!
वो मुस्कुराई,
आंसू नहीं ढलके इसका मतलब है,
वो आज बाज़ार से सब्ज़ियाँ ही लाई है !!
कि जब गई थी बाज़ार,
शर्माइन परसों अपने दाहिने कूल्हे पर,
कड़ा नील जमवा आई थी उस नील पर,
किसी उगते लड़के की मटरगश्त उँगलियों के निशान थे.
तुम्हारे क़दमों की थाप सुनते गुड्डी भागते हुए आएगी लग जाएगी गले,
और छीन लेगी हाथों से बैग !!
उसके माथे पे फेरो हाथ,
और प्यार से माथा चूमो खुश रहो,
कि आज भी स्कूल से घर बच्ची ही लौटी है !!
पिछले हफ़्ते ही किसी की हवस ने जवान कर दिया था,
तीन हफ़्ते की बच्ची को.
चलो अब,
ऊँगली काटो और अपने खून से दीवार पर लिखो “दिल्ली”!!!
और इस शहर के नाम के आगे,
माथा टेको.
कि आज फिर,
तुम बदन में सांस लिए घर लौटे हो !!!
ये शहर,
हर किसी को इतने दिन जीने का मौक़ा नहीं दिया करती