गंभीर अड्डा

आजकल राजनीति मतलब गुंडानीती

अक्टूबर 5, 2016 सुचित्रा दलाल

भारतीय राजनीति  में बढ़ते गुंडाराज से परेशान मुदित राज अक्सर कोशिश करते है कि कम से कम राजनीती को  गुंडानीती  में बदलने वाले लोगो को शब्दों के जरिये जोरदार चमाट मारा जा सके . आज वो गुंडाराज पर अपने चमाटेदार शब्दों से लिख रहे है .

देश में आज हर चुनाव से पहले धनबल और बाहुबल का प्रदर्शन खूब किया जाता है ,पहले अपराधी नेताओ को सपोर्ट करते थे और आज वह खुद राजीनीति में आकर अपना गुंडाराज चला रहे हैं . राजनीति  में बढ़ते अपराधी ही लोकतंत्र को अंदर ही अंदर खोखला बना रहे है. देशभर में अक्सर लड़ते भिड़ते नेताओ और उनके चमचों की खबर सामने आती रहती है, यूट्यूब में बस एक सर्च में गुंडाराज के दर्जनों सीसीटीवी फुटेज सामने होते हैं.

राजनीति  में बढ़ते अपराधियों का ही नतीजा है कि आए दिन गुंडागर्दी की खबरे सामने आती है. हाल ही में एनसीपी विधायक सुरेश लाड की दबंगई देखने को मिली थी. वो डीसी को थप्पड़ मारते कैमरे में क़ैद हो गए थे. इसके अलावा बिहार कटिहार में एक विधायक ने बैंक मैनेजर की केबिन में घुसकर ना सिर्फ धमकी दी बल्कि उसको थप्पड़ भी जड़ दिया । दबंगई का एक और मामला महाराष्ट्र में सामने आया जहां शिवसेना विधायक और उनके समर्थकों ने कथित तौर पर अपनी पसंद की बर्थ देने के की मांग को पूरा करने के लिए छत्रपति शिवाजी टर्मिनस (सीएसटी) पर एक्सप्रेस ट्रेन एक घंटे रोके रखा जिसकी वजह से 2,000 यात्रियों को असुविधा के साथ कई अन्य ट्रेन प्रभावित हुईं |

सवाल यह उठता है कि जनप्रतिनिधि आखिर चुने क्यों जाते हैं? पब्लिक की समस्या प्रशासन तक पहुंचाने और उससे सम्बन्धित क़ानून बनाने के लिए या या फिर अपनी गुंडई के बल पर राज करने के लिए .आज के नेता सिर्फ सत्ता हासिल कर हुकूमत करना चाहते हैं . एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म की मानें तो पंद्रहवीं लोकसभा में 543 सांसदों में से 162 पर गंभीर मामले दर्ज थे और सोलहवीं लोकसभा में इनकी संख्या और भी बढ़ गई। वही 2015 के विधानसभा चुनावो में हर पार्टी ने अपराधियों को चुनावी मैदान में उतारा था जिनमे आम आदमी पार्टी के 23 उम्मीदवार दागी थे वही भाजपा के 27 और कांग्रेस के 21 उम्मीदवारों पर अपराधिक मामले चल रहे थे. मौजूदा विधानसभा में एक तिहाई विधायक अपराधिक मामलो में शामिल है. वर्तमान में चाहे लोकसभा हो या विधानसभा दोनों ही जगह अपराधियों का बोलोबाला है .

भारतीय राजनीति  में अपराधियों  के बढ़ते बोलोबाले का बड़ा कारण जनप्रतिनिधित्व कानून का लचीला होना भी है। सन 2006 में चुनाव आयोग ने देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक पत्र लिखा। उस पत्र में गया था कि यदि जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 में जरूरी बदलाव नहीं किए गए तो वह दिन दूर नहीं जब देश की संसद और विधानसभाओं में दाऊद इब्राहीम और अबू सलेम जैसे लोग बैठेंगें । सितंबर 2013 में सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले का भी विरोध किया था जिसमें कहा गया था कि यदि अदालत विधायिका के किसी सदस्य को दो साल या उससे अधिक की सजा सुनाती है, तो वह अपनी सदस्यता बरकरार नहीं रख सकता। लेकिन 2013 सुप्रीम कोर्ट ने इस धारा को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि ‘जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की यह धारा संविधान के अनुच्छेद 14 में प्रदत्त समानता के अधिकार पर खरी नहीं उतरती’ तो इससे देश के पूरे सियासी बिरादरी में खलबली मच गई थी। अब जुलाई 2016 में ‘लोक प्रहरी’ की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह से कड़ा रुख अपनाया है उससे इस मामले ने एक बार फिर जोर पकड़ लिया है।

सुप्रीम कोर्ट के अपराधियों की सदस्यता रद्द करने के फैसले की महत्ता इसलिए भी बढ़ जाती है क्यूंकि हमारे देश में दागी जनप्रतिनिधियों की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है। 2004 की भारतीय संसद में 24 प्रतिशत सांसद दागी थे, पिछली यानी 15वीं लोकसभा में यह संख्या बढक़र 30 प्रतिशत हो गई और मौजूदा 16वीं लोकसभा में कुल 186 सांसद याने 34 प्रतिशत दागी हैं। इसी तरह से देश की विधानसभाओं में 31 फीसद विधायकों के विरुद्ध आपराधिक मामले चल रहे हैं। जब हमने विधानसभा में गुंडे ही भेजने हैं तो इतने बड़े लेवल पर चुनाव करवाने का औचित्य ही क्या है.

 

 

 

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