ये घूमना नहीं आसान बस इतना समझ लीजिये
दो पहियों की गाडी है और एक्सीलेटर देते जाना है(शायर इस हरकत के लिए हमें माफ़ करे, लेकिन ये घुमन्तु विनीत फुलारा ने अपनी बाईक यात्रा में हमें ये परिचय लिखने पर मजबूर कर दिया, इन्होने यूपी का चक्र शुरू किया जिसके पड़ाव दर पडाव के अनुभव हमारे साथ शेयर किये हैं. जिससे बाईक में मैदानों का सफर करने के इच्छुक युवाओं को दिक्कत ना हो. आज पेश है इस मैदानी यात्रा का पहला भाग.
फटफटिया से उत्तरप्रदेश की तरफ को निकल गया हो इस बार, बहुत दिनों से मन उचाट सा था। मैंने अपने अंतर्मन से पूछा कुछ दिन अवकाश के लिए तो उसने इस बार एकदम से स्वीकृति दे दी, जाओ एक हफ्ते के लिए घूमकर आओ। पृथ्वी ‘लक्ष्मी’ राज सिंह दा को पिछले साल जाते हुवे देखा था तो इस बार मैंने भी मन बना ही लिया। निकलने के पिछले रोज Doi Pandey जी को ट्रेन पकड़वाने में मदद कर पाया तो अगले ही दिन उनके साथ लखनऊ में चाय पीने का मौका भी मिल गया। और शुरू हो गया डोईयाट। मन था अकेला निकलने का, लेकिन “यू पी का इलाका है” का हव्वा था मन में इसलिये पीछे बैठे हुवे साथी की तलाश पूरन डंगवाल के रूप में पूरी हुई। शाम को दो बजे भीमताल शॉप से निकलकर सीधा बरेली होते हुवे शाहजहांपुर तक पहुँच पाया था उस दिन। 9 बज चुके थे । रेलवे स्टेशन के सामने ताज होटल में कमरा लेकर बाइक खड़ी कर पैदल निकल पड़े शहर घूमने। पास ही एक चौक पर जाकर पता चला की पं राम प्रसाद बिस्मिल और असफाक उल्ला खां जो 9 अगस्त 1925 को काकोरी कांड में पकड़े गए और 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर जेल में फांसी की सजा पाकर देश की आजादी के लिए शहीद हुवे, वो मतवाले भी इसी शाहजहांपुर से ही थे। उनको नमन कर हम कमरे पर आ गए। पृथ्वी दा का फोन आया कि हम भी लखनऊ ही हैं मिलते हुवे जाना होगा आपको। फिर डोई पांडे जी ने बताया कि उनकी आपस में बात हो गयी है और हमको उनसे कहाँ पर से मिलना है।
सुबह का नाश्ता सीतापुर में एक बड़े से परांठे के रूप में करने के बाद लखनऊ में प्रवेश करते ही डोई भाई मिल गए अपनी बाइक में और पॉलिटेक्निक चौराहे पर पृथ्वी दा के भी मिलने के बाद सभी चल पड़े लखनऊ-फ़ैजाबाद बाईपास रोड पर बाराबंकी की तरफ। एक ढाँबे पर बैठकर डोई भाई ने जो चाय पिलाई कुल्हड़ में आहा, और खीर भी तो थी। खूब गप्पे शप्पें हुई। पृथ्वी दा ने आगे की यात्रा के लिए हिदायतें और आशीष देकर विदा किया। फैजाबाद होते हुवे अयोध्या पहुंचे दिन में 1 बजे। पथिक निवास लॉज में कमरा लेकर अयोध्या भ्रमण को निकल पड़े। रामलला से ही शुरुवात की तो गेट पर फोन, पर्स, से लेकर सुपारी, पैन, कागज़ सब कुछ वहीँ छोड़कर अंदर जाना हुवा। कई सुरक्षा घेरों को पार कर पहुंचे एक पिंजरे नुमा गोल गोल घूमे जाली लगे बेरिकेटिंग वाले रास्ते में जहां पर लगभग आधा किलोमीटर चलकर एक जगह पर टेंट के अंदर रखे हुवे रामलला की मूर्ती जैसी कुछ दो सेकण्ड के लिए दिखाकर फिर से उतना ही चलने के बाद गेट से बाहर छोड़ दिया। बाहर प्रसाद सामग्री के साथ साथ एक सी डी बहुत बेचीं जा रही थी उधर और बाकायदा हर दूकान पर स्क्रीन पर वो वीडियो चला कर दिखाया जा रहा था। रुक कर देखा पता चला वो मस्जिद ढहाते समय का कार सेवकों का वीडियो है। आगे जाकर घाट और उनकी दुर्दशा देखी, पिछली बार की पृथ्वी जी की अयोध्या यात्रा से कमाए हुवे रिश्ते करीम भाई से हमें भी मिलने का मौका मिला। करीम भाई के पुत्र कासिम भाई परिवार के साथ वहां रहते हैं और सालों से खड़ाऊ बनाते आ रहे हैं। पृथ्वी दा के निर्देश पर उनसे करीम भाई की बात करवाई फ़ोन पर और खड़ाऊं लेकर करीम भाई की डायरी पर अपना नाम फोन नम्बर अंकित कर हम आगे बढे। सुबह चार बजे सुल्तानपुर होते हुवे बदलापुर-जौनपुर होते वाराणसी सुबह 10 बजे पहुचे। जौनपुर के पास रोड बहुत ख़राब थी। वाराणसी रेलवे स्टेशन(कैंट स्टेशन) के पास राजेंद्र लॉज में कमरा लेकर अस्सी घाट की तरफ पैदल निकल पड़े। काशी विश्वनाथ मंदिर से लगी हुई मस्जिद और रानी लक्ष्मीबाई जन्मस्थान देखने के बाद अस्सी घाट पर बाढ़ के साथ आये हुवे मिटटी और मलवे को पानी के पाइपों से वापस नदी में डालते हुवे लोगों को देखा। मोदी जी ने गोद लिया है ना बनारस? एक बनारसी पान मुह में दबाकर इस पुराने शहर को तसल्ली से देखा। अगला दिन चार बजे बनारस-इलाहाबाद हाइवे से शुरू हुवा और हम 8 बजे इलाहबाद संगम पर थे। किनारे पर कीचड़ में धंसे गणेश जी जो गणेश चतुर्थी पर विसर्जित किये गए होंगे, उनको ऐसे लावारिश पढ़ा देखकर अच्छा नहीं लगा। उनकी तस्वीर लेकर हम चित्रकूट को रवाना हुवे।