भगवान् धामी की यह कविता वर्तमान परिदृश्य पर सटीक बैठती है, चुनाव आ रहे हैं, और पहाडी राज्य उत्तराखंड की हालत इसी कविता की जैसी है .
ये क्या! कहाँ खो गयी हरियाली
मैं केवल यही देख सका
इतने बरस तो हुए नहीं
बूढ़ा गया अपना पहाड़
सच में हरे-भरे जंगलों से भरा था
आज बूबू के सिर जैसा टकला अपना पहाड़
सुरक्षा के लिए, सुविधा के लिए
आखिर किस लिए
नग्न हुआ बैठा है अपना पहाड़
जिस तरफ नज़र जाती मेरी
बूढ़े व्यक्ति सा अपना पहाड़
माँस लटक कर गिर रहा है
बच गया मात्र हाड़
क्या समय से पहले बड़ा गया अपना पहाड़
मैं तो समझा था अभी शुरू हुआ है जीवन इसका
भरी जवानी में ही बूढ़ा गया अपना पहाड़
हिमालय के दर्शन ऐसे होते हैं
जैसे वृद्ध के मुँह में बचा अंतिम दाड़
कहीं सच में बूढ़ा तो नहीं गया अपना पहाड़
अरे! इतना सूनापन कैसा
युवावस्था में शिथिल सी हो गयी नदियां
ये वही पहाड़ है ना
जहाँ बाघ से ज्यादा डराती थी नदियों की दहाड़
सच में बूढ़ा हो गया लगता है अपना पहाड़।