- जब हम फ़िल्में देखते हैं तो अक्सर एक आवाज़ हमारे कानों की घण्टी बजा देती है, वो आवाज़ होती है ‘बीप-बीप’,
वैसे इस बीप के मायने तो सभी को पता होते हैं लेकिन फिर भी हम अंजान ही बने रहते हैं। इसी ‘बीप’ का महिमा मंडन कर रहे हैं अमित तिवारी–
भाषाओं में तरह-तरह के भेद होते हैं। पर कई सारी बातों को आप भाषा न जानते हुए भी समझ सकते हैं। ये बेहद तीक्ष्ण भावनाएं होती हैं। venn Diagram की भाषा में ऐसी सभी भावनाओं के ‘संघ समुच्चय’, माने कि यूनियन सेट को बीप से दर्शाया जाता है।
‘गंगाजल’ तो आप सबने देखी ही होगी.. “आँख दिखाता है बीप-बीप!” एक उदाहरण है इस महान आवरण का। तो आइये आपको इस बीप की महिमा से परिचित कराते हैं।
आपको किसी भी विषय की जानकारी हो न हो। बीप के मायने जरुर पता होते हैं। इस विषय पर लोगों की विशेषज्ञता ऐसे समझिये कि, अगर स्कूली परीक्षाओं में ‘रिक्त स्थान की पूर्ती कीजिये’ वाले सवालों में “बीप” वाले वाक्य दिए जाएँ। सभी शत-प्रतिशत अंको से उत्तीर्ण होंगे।
बीप का हमारे जीवन में इतना महत्वपूर्ण स्थान है कि अगर ये ना हो तो कई ‘मनोरंजक’ कार्यक्रम हम परिवार के साथ देख ही ना पायें। ये एक पर्दा है जो जान के अनजान बने रहने में मदद करता है जैसे घरों में ननदें पर्दे से सब सुन के भी भाभी को ये दिखाती हैं कि उन्हें पता ही नहीं कुछ भी।
ये उस ओजोन परत जैसा है जो हमारे मित्र-मंडली और ठेके वाले संस्कारों को हमारे पवित्र घरेलू संस्कारों में मिलने से रोकता है।
बीप अगर ना हो तो हमारे कान बिना फिल्टर की सिगरेट जैसे हो जाते हैं। जिनके जरिये हमारे जीवन और आदर्श रुपी फेफड़ों में इतना टार, इतना टार जमा होने लगता है कि हम बेहयाई वाले कैंसर के शिकार हो सकते हैं।
बीप आपके नाक के बालों की तरह होता है। जो कई सारे हानिकारक तत्वों को आपकी जनेउधारी आत्मा को छिन्न-भिन्न करने से बचाता है। लेकिन एक सीमा है इसकी भी और अक्सर सेंसर बोर्ड वाले ख्याल रखते हैं कि ज्यादा मात्र में इन तत्वों की बौछार ना हो नहीं तो बीप का बाप भी नहीं बचा पायेगा।
संस्कार और आत्मा दोनों को जुकाम होना तय है फिर इसलिए तो पूरे सीन पे ही रबड़ चला देते हैं। कहानी का क्रम तुक वैसे भी अब कोई नहीं पूछता यहाँ!
ट्यूनीशिया स्थित ‘यूनिवर्सिटी ऑफ़ लाइट-कैमरा-एक्शन-माइकल-जैक्शन’ के अनुसार भारतीय सेंसर बोर्ड ने अगस्त 2015 तक फिल्मों, डबिंग और गानों में इस चमत्कारी बीप के इस्तेमाल से लाखों-करोड़ों घरेलू आलोकनाथों को निर्लज्ज शक्ति कपूर बनने से बचाया है।
सरकार की लज्जा नियामक संस्था ने बीप के इस्तेमाल पे गाइडलाइन भी दी हुई है, जोकि इस प्रकार है.
“बीप का इस्तेमाल कीजिये नमक की तरह, स्वाद बना रहे पर अतिरेक नहीं, की आपकी रचना निम्न/उच्च रक्तदाब की मरीज बने!”
उन्होंने एक यंत्र भी दिया है “बीप-ओ-स्कोप”. मुफ्त नहीं है। पर बाकी हर चीज़ की तरह ये भी टोरेंट पे मिल जायेगा, वहाँ से डाउनलोड करें। इज्जत के साथ पैसे भी बचाएं। ये यंत्र आपके बीप की संख्या और उपादेयता की जांच करके सर्टिफिकेट चिपका देता है। जिसके बाद वो रचना कभी भी, कहीं भी पढने-सुनने-देखने के लिए उपयुक्त हो जाती है।
बीप की जरूरत असल में तब महसूस होती है जब आप धारदार मुक्तक छोड़ रहे हों मित्र मंडली में (इन मुक्तकों की धार से ही आपकी बातों का वजन मापा जाता है!) और तभी कहीं से आपके परिवार या रिश्तेदारों के कबीले से कोई वैसे ही निकल आये जैसे तमाम वेबसाइट पे “मुझसे बातें करेंगे? / मैं अकेली हूँ, मिलना चाहेंगे?” टाइप विज्ञापन निकल आते हैं। तब लगता है की काश बीप होता तो यूँ लज्जित न होना पड़ता।
यहाँ तक सब ठीक है। असल मुद्दा यहाँ ये खड़ा होता है कि जो नये बालक लोग इससे रूबरू हो रहे हैं। अगर उनके प्रकांड ज्ञानी मित्र उन्हें बीप नामक सिक्के के दूसरे पहलू को ताड़ने में माहिर नहीं बनाते, तो फिर वो घर पे सवाल करेंगे की ये बीप क्या है और आप उस पर्दे में लिपट के द्रौपदी सा महसूस करने लगेंगे जिसका चीर वो सवाल खींच रहा है। आप पुकारेंगे कृष्ण को पर कोई न आएगा। घर की महिलाये हो सकता है आपको बचा लें उस अबोध को बहला-फुसला के लेकिन आपके उस बीप वाले ओजोन में छेद होना तय है।
उपाय न पूछियेगा.. क्यूंकि मैं भी तलाश में हूँ।