जमीन में विचरते हुए चंकी महाराज को एक चाय वाले ने ये ज्ञान दिया, आप भी बंटोरिये
रोहिणी के पास में एक चाय की दूकान है.वहां मैं अक्सर बैठा करता हूँ .सुकून के साथ चाय पीने के लिए एक अच्छी जगह है वह . उस दूकान की एक खासियत है वहाँ कोइ नौकर महीने भर से ज्यादा नहीं टिक पाता कई बार उनसे जानने की इच्छा हुई कि आखिर भय्या क्यों तुम्हारे नौकर इतनी जल्दी भाग जाते हैं, बस वही इच्छा आज पूछ कर पूरी कर ली .
वो भय्या बोले क्या बताऊँ. मैं और मालिकों की तरह उनकी तनख्वाह अपने पास सिक्योरिटी के नाम पर रखे नही रखता हूँ,जितने पैसे में उन्हें रखता हूँ उतने पैसे महीने के आखिर में उन्हें दे देता हूँ ,बस पैसा मिलते ही वो फुर्र हो जाते है . लेकिन मुझे अच्छा लगता है .क्योंकि जब मैं इस शहर में आया था तो मैं भी इन्हीं की तरह चाय के ठेलो में नौकरी करता था मालिक मुझे पैसे के नाम पर 2-4 रूपये देता था जो घर जाने के लिए पूरे नही पढ़ते थे इसलिए गाँव जाने की कोशिश ही नहीं की कभी, जो मेहनत यहाँ की वही अगर गाँव में करता तो अच्छा खासा कमाता पर फिर धीरे धीरे इस शहर की आदत पढ़ गयी मुझे.
पर अब जब इनको देखता हूँ तो लगता है इन्हें वापस जाने का एक मौक़ा मैं दूं . इसलिए दूकान में लगाने के साथ ही इन्हें समझाना भी शुरू कर देता हूँ कि इस तरह यहाँ जिल्लत की नौकरी करने से अच्छा है अपने शहर में अपने गाँव में कुछ करो . यहाँ का 10 रूपया और तुम्हारे गाँव का 1 रूपया बराबर है . यहाँ रहकर तुम कुछ नही कर पाओगे अपने भविष्य के लिए खाली किस्मत के भरोसे बैठे रहोगे कि क़िस्मत चमकेगी और तुम्हें कुछ मिलेगा . इससे अच्छा अपने गाँव जाओ जो मेहनत मजदूरी यहाँ कर रहे हो वही मजदूरी वहां करो .दो पैसे कम मिलेंगे लेकिन इज्जत के मिलेंगे और परिवार के साथ मिलेंगे . बस जो समझ जाता है वो वापस लौट जाता है जो नहीं समझ पाता वो कहीं और भाग जाता है
एक अजीब सी खुशी मिली उनकी बात सुनकर . इस शहर में पढ़े लिखे लोग जब दिहाड़ी पर काम कर रहे हैं ,तो इन अनपढ़ बच्चों का भविष्य क्या होगा जो भागकर आ जाते हैं . फिर मजबूरी में यहीं के होकर रह जाते है . कम ही लोग मिलते हैं जो इस तरह इन्हें समझाए .