गंभीर अड्डा

बाबू ! घर आ जाऊं?

मई 20, 2017 ओये बांगड़ू

खतों का ज़माना लद गया है, एसे में मनु द्फाली का ये खत उन खतों के जमाने को तो ज़िंदा करता ही है साथ ही एक एसे विषय पर बोलता है ,जिस पर लगभग हर राज्य के बच्चे बोलना चाहते हैं खासकर वो बच्चे जो अपना घर छोड़कर दूर दुसरे शहर कुछ करने को गए हैं. बहुत जानदार विषय पर लिखा मनु का शानदार लेख .

बाबू पै लाग ..

बाबू ईजा को मत बताना कि मैंने तुमको ये चिट्ठी लिखी है, कहीं फिर से वो “उचैड” न रख दे | तुमको भी नहीं लिखता, अगर मैं आज ऐसा नहीं हो गया होता | बाबू, यहाँ दिल्ली में बहुत गन्दा सा हो गया है, मुझ को वापिस पहाड़ आने का मन करता है |
मुझ को पता है, ये पढ़ कर, तुम मुझ से जयादा खुद को हारा महसूस करोगे | लेकिन बाबू, क्या करूँ, चाहते हूए, न चाहते हूए भी बोहत लड़ा, पर अब नहीं हो पा रहा अब मुझसे | शुरू शुरू में खूब लड़ा, तुमने जैसे कहा वैसे भी, और जैसे यहाँ दिल्ली वाले लड़वाते हैं वैसे भी, पर अपने मन से – हाँ शायद नहीं लड़ा, क्यों की मन मेरा शायद वही रहता है, पहाड़ों में |
बाबू पता नहीं तुम जान पाओगे या नहीं, महसूस कर पाओगे या नहीं, लेकिन घर के खाने, वहां की ठंडी हवा, पानी, त्योहारों और दोस्तों की याद बोहत आती है, हो | यहाँ के फ़ास्ट फ़ूड, जहरीली हवा और डिब्बा बंद पानी ने मेरी जान सुखा दी है | और यहाँ लोग भी तो नहीं जानते, दिल्ली बोलने को लगता है एक शहर, लेकिन यहाँ तो अपने पहाड़ के दोस्तों के पास भी टाइम नहीं होता, वो सभी लगे रहते है, और मेरे पास अभी तो कोई काम भी नहीं है |
बाबू ऐसा मत समझना की तुम्हारा लड़का, नालायक है, कि उसे कोई काम नहीं मिल रहा | बाबू काम बोहत किये, कई कंपिनयों की ख़ाक छानी, इंटरव्यू दिये और कुछ एक में काम मिला भी | लेकिन सब साले चील, कौवे बैठे हैं, तुम्हारी बोटी बोटी चट कर देने को तैयार, और हाथ में कुछ भी नहीं देते | फ्री में काम निकलवा लेते हैं | मुझ से नहीं होता, मैं सालों को गाली कर आता हूँ |
बोहत गुस्सा आता है, पहले इस दिल्ली पर और फिर खुद पर, मुझ को पता है, ऐसे नहीं होता है, सुनना पड़ता है, काम के लिए अतास नहीं करनी पड़ती | लेकिन क्या करूँ, गलत देखा नहीं जाता, ईजा से सीखा है न ,घर में कित्ती ही बार उसने भी गलत को गलत बोला है, और लड़ी है, चेला तो उसका भी हूया मैं |
बाबू, यहाँ के छोटे छोटे कमरों में दम घुटता है | बाहर बरामदे में फर्श पर एक रोशनदान सा है, जहाँ से नीचे की मजिलों में थोड़ी से रोशनी जाती है, पता अकसर मैं उसपर कूदता हूँ, सोच कर कि ये टूट जाए, और कुछ हादसा हो जाए | परसों इंटरनेट पर पड़ा, पता चला, ऐसी स्थिति को अवसाद (डिप्रेशन) कहते हैं | बाबू मैं तुमको डरा या धमका नहीं रहा, पर यहाँ जो मेरे साथ हो रहा है, उसे मैं आपको नहीं तो किसको बताऊँ |
मुझ को वापस आना है, मुझ को पता है, तुमको भी पता है कि मैं ठीक नहीं, और चाहते हो वहीँ कुछ कर लूं, कुछ नहीं तो दूकान ही देख लूं, लेकिन आसपास वालों के उन खतरनाक लोगों से क्या कहोगे, जो दिवाली-होली में एक और दिन नहीं टिकने देते घर में | अपने जैसे फालतू सवाल बारबार पूछ कर दिमाग ख़राब कर देते हैं |
कब आया ? कब जाएगा ? क्या कर रहा है ?
मैं डरता तो इससे भी नहीं हूँ, मूँ पर ही इनकी छर्रबट्ट कर दूं, लेकिन फिर ईजा हूई आप हूए, तुम हूए – सुनना पड़ेगा | लेकिन अब नहीं होता, यहाँ मैं हर रोज मर रहा हूँ, और चाहता हूँ कि वापस अपनी जमीन पर कुछ करूँ | दिल्ली से और कुछ नहीं तो इतना तो सीख ही लिया है, कि वहां क्या क्या किया जा सकता है | वो किशन धामी अंकल का लड़का मेरा दोस्त, दिल्ली से वापिस आकर, कर तो रहा है वहीँ काम, और खुश भी है | मैं भी जरूर ही कुछ न कुछ कर लूँगा, बस तुम्हारा और ईजा का सर पर हाथ चाहिए |
बाबू क्या हो जायेगा, अगल बगल वाले कहेगें कुछ, तुम ही बताओ जब ईजा को कुछ होता है, या तुमको कुछ तो, कोई आता है इनमें से – सीबोसिब कह कर सब निकल जाते हैं, कम से कम मैं तो हूँगा वहां उस समय | और वैसे भी पीठ पीछे ये बुरा ही बोलते हैं, कहते हैं, इनका लड़का कुछ नहीं करता दिल्ली में, बस पड़ा हूआ है | आने दो वापिस मुझे, बताता हूँ इनको भी, कि मैं क्या कर सकता हूं क्या नहीं | ईजा तो हमेशा ही कहती है, वापिस आ जा, लेकिन तुम्हारे डर से, कभी नहीं कहा होगा, बाबू अब तुम छोड़ो न अपनी जिद और लगा लो अपने सीने से मुझे |
तुम्हारे सामने ये सब नहीं कह पाता, इसी लिए लिख दिया सब | आशा है, तुम अपने लड़के को समझोगे और मुझ को आने दोगे – वापस

आपका अरविन्द

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