उत्तराखंड में चुनाव हैं डेढ़ दो महीने में , 11 मार्च को पता चल जायेगा कि राज्य को नोचने के लिए कौनसी सरकार आ रही है. राज्य गठन के बाद राज्य में सिवाय हवाई वादों के कुछ नहीं हुआ और राज्य के युवा इसे किस नजर से देखते हैं ये बता रहे हैं गिरीश लोहनी , अपने इस आंकलन में .
पूसुडी का त्यार (त्योहार) आने वाला है. याद ना हो तो याद करो ‘का कवा का का पूस की रोटी माघे खा…’ दरअसल ये उत्तराखंड में मकर- सक्रांति की पिछली रात मनाया जाने वाल एक बड़ा पर्व है ( शायद था ज्यादा सही है). ख़ैर उत्तराखंड में वैसे तो 2000 के बाद से हर साल माघ के पहले दिन कव्वो को बुलाया जाता है, पर हर पाँचवें साल मे यहां दो बड़े राष्ट्रीय गिद ( गिद्ध) मडराने लगते है. एक फूल पर सवार दूजा पंजे पर सवार. और हम हर साल जैसे कव्वे को खाना देते है वैसे ही इनमे से एक को पाँच-पाँच साल के लिये खुद को नोचने के लिये सौप देते है. वो भी बारी- बारी. क्या उत्तराखंड का यही हाल होता अगर दिल्ली से हेलिकाप्टर मे उड़ कर आने वाले की जगह हमारे तुम्हारे बीच का कोई होता जिसे हम अपना नेतृत्व सौँपते. क्या तब भी हम पुसुडी को भूल ऐसे ही मकर-संक्रांति के नाम पर कुकुरमुत्ते की तरह लगे बनावटी कौतिक में भटकते रहते.
अगर इन सरकारों को हमारी जड़ों का ज्ञान होता तो जंगलों में चाल-खाल खुदने की जगह हेलिकाप्टर से पानी बरसाने की नौबत न आती. हेलिकाप्टर से उड़ने वाला नेता कैसे उस पहाड़ी गाँव की समस्या जान सकता है जिसमें सड़क ही ना हो .
फेसबूक ट्वीटर से लोगों की समस्या सुनने वाली सरकार कैसे उस गाँव की समस्या समझ सकती है जहां मोबाईल के नेटवर्क ही पूरे ना आते हों . कैशलेस के घोड़े पर सवार पार्टी कैसे उस गांव की समस्या समझेगी जिसके गाँव वाले के लिये आज भी बैंक का ब किसी बाघ के ब से कम नहीं. क्या गाड़-गधेरे के नाम से लोगों को चूना लगाने को तैयार सरकार गाड़ और गधेरे मे अंतर तक जानती है. बजट मे गह्त और गलगल को साथ मे रखना हमारी वित्त-मंत्री का राज्य के विषय में उनके ज्ञान को बतलाता है. पूरे देश मे संस्कृत को राज्यभाषा का दर्जा देने वाला पहला राज्य बनकर ना जाने हमने किसे ख़ुश किया जबकि कुमाऊँनी एवम् गढ़वाली आज भी बोली मात्र है.
दंगल जो कि कमाई के सारे रिकॉर्ड तोड़ चुकी है राज्य में कर-मुक्त दिखायी जाती है जबकि स्थानीय भाषा में बनी फिल्म ‘गोपी-भिना’ को राज्य में स्क्रीन तक नही मिलती. फिल्म के कलाकारों मेँ राज्य फिल्म विकास बोर्ड के सदस्य होने के बावजूद जब यह हाल है तो अन्य तो आप जान सकते हैं. उत्तराखंड को रणजी ट्राफी में शामिल करने की बात तो कर ली पर उत्तराखंड का खिलाड़ी सीखेगा कहाँ काँठ में? राज्य खेल फुटबाल तो बना दिया पर कितने राष्ट्रीय स्तर के फुटबाल स्टेडियम बना दिये? या उसको भी कोई काँठ ही देने की योजना है.
ख़ैर उत्तराखंडियों ने सशक्त क्षेत्रीय दल के अभाव मे अपना पुराना अलाप रिमिक्स कर पुसुडीया से पहले ही शुरु कर दिया है
आ फूल आ आ.. (आ फूल आ )
पंजाक बचिनाक तेले खा.. (पंजे का बचा हुआ तू भी खा )
पंजावाला बुर जन मान्या.. (पंजे वाले बुरा मत मानना )
अघिल बार तुमी छ्या खान्या.. (अगली बार तुम खा जाना )