कुछ सदियों पहले वो मेरठ की छावनी में अंग्रेजों के साथ चाय पीती दिखी थी , मैं तब वहां झाडू लगाता था. कमाल की खूबसूरत थी . मुझे देखकर बोली “हेलो मै भी हिन्दुस्तानी हूँ ” बस उसका इतना भर कहना था कि मेरा जन्म जन्मान्तर से अकेला मन पागल हो गया उसके प्यार में , मुझे लगने लगा लाइन दे रही है . मैंने भी जानबूझकर लाइन देना चालू कर दिया अपने अंदाज में . मै झाडू लगाते लगाते उसके क़दमों के पास चला जाता उसकी ख़ूबसूरती निहारता और चुपके से उससे आँख मिलाता वह भी आँखें चुराकर मेरी हरकतों को बढावा देने में लगी थी .
मै झाड को उसके पैरों के पास फेंक देता और हिन्दी में कहता(वैसे अंगरेजी कौनसा आती थी मुझे ) ‘मैडम आपके पाँव के पास धुल जमी है .झाडू मार देता हूँ ‘, एसा लगातार मैंने चार पांच बार किया , मगर हर बार उसने में मुझे झाडू मारने के लिए स्पेस दिया . पास खड़ा कमबख्त अंग्रेज सिपाही समझ गया कि मै लाइन मार रहा हूँ लेकिन वो चुडेल नहीं समझी, वैसे भी जो लाइन मारता है उसकी लाइन सामने वाली लड़की को छोड़कर हर कोई समझ लेता है त्रेतायुग से एसा ही होता आया है. शूर्पनखा लाइन दे रही थी राम जी को और समझ में आ रहा था लक्ष्मण को.
खैर वो हर बार उठकर किनारे हो गयी और मुझे झाडू मारना पड़ा. लास्ट में अंग्रेज ने मेरे हाथ से झाडू छीन ली और गुस्से में बोला यहीं साफ़ करेगा या नाली से मैला भी उठाएगा . अंग्रेज का कहा तो मैंने अनसुना कर दिया लेकिन जैसे ही लडकी बोली कितना झाडू लगाओगे , अब जाओ भी.
“दिल के अरमां आंसूओं में बह गए ”
जो मेरी दी हुई लाइन नहीं समझी ,वो मुझे क्या समझेगी .
मुझे तभी समझ जाना चाहिए था …
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