हम जब बच्चे थे तो अपने अपने बचपन को मस्ती भरे अंदाज़ से जिया है, लेकिन सभी बच्चों पर ऐसा लागू हो ऐसा नहीं है। कुछ बच्चों का बचपन आज भी शरारतों से कोसों दूर है, वो अपनी एक वक्त की रोटी में ही अपना बचपन गुजार देते हैं। ऐसा बचपन जिसके पास तन ढकने को कपडे तक नहीं! ऐसे ही बचपन के आँखों देखे हाल को सामने रख रहे हैं राहुल मिश्रा–
बचपन आह !!!!! हमारी ज़िन्दगी का सबसे हसीं वक़्त होता है बचपन का। जो जी में आये करते थे और जो जी चाहता था पूरा भी हो जाता था। मर्ज़ी से सोते थे मन मर्ज़ी से उठते थे, ज़्यादातर मनमानियां तो जिद ज़बरदस्ती से पूरी करवा लिया करते थे। काम के नाम पर तो खाना पीना, खेलना और सो जाना। बिना वक़्त की परवाह किये खेलना, दोस्तों के साथ रोज़ नई शरारतों के रिकॉर्ड तोड़ देना। हम सबकी उम्र का सबसे बेहतरीन वक़्त तो बचपन का ही होता है. है ना ?
क्या सच में ये बात सबको एक सी ही लगेगी? अगर हाँ तो फिर आप हकीक़त से पूरी तरह से अनजान हैं! क्या आपने कभी सड़क किनारे कूड़ा बीनते आधे नंगे छोटे छोटे बच्चों पर कभी ध्यान दिया है? किसी ढाबे पर खाना खाते हुए, आपके कानो में कभी ये आवाज़ सुनाई नही पड़ी? “ओये छोटू, ये झूठे बर्तन कौन उठाएगा”. क्या आपको नहीं मालूम कि मजदूर वर्ग में सबसे छोटे मजदूर अपनी ताकत से ज्यादा मेहनत तो करते हैं पर मेहनताना सिर्फ एक बच्चे के नाम का मिलता हैं। क्या आपने कभी किसी बच्चे के लगातार भीख मांगने से तंग आ कर अपनी गाड़ी का शीशा नहीं सरका लिया। क्या आपने रेड लाइट होने पर कुछ बच्चों को रंगबिरंगे गुब्बारे और लाल गुलाब हाथ में लिए हुए हर किसी से उन्हें खरीदने की गुहार लगाते कभी नही सुना? भारत का उज्जवल भविष्य किसी ट्रेन के पीछे, चाय ले लो चाय, चीखता भाग रहा है और आप कह रहे हैं कि आप इस सच के आईने से अब तक रूबरू ही नही हुए।
अगर बच्चों को किसी देश के भविष्य के रूप में देखा जाता है तो भारत का कल तो आज की एक वक़्त की रोटी जुटाने में लगा है। जहाँ उन्हें इस उम्र में किताबों से भरे बस्ते उठा कर थकने के बहाने बनाने चाहिए वहां वो सर पर चार और बगल में दो इंटें उठाये भट्टी में खुद को तपाते हैं। एक ओर कोई बच्चा सुबह स्कूल न जाने के बहाने में थोड़ी देर सोने की जिद करता है और यहाँ वो सूरज उगने से पहले सूनी पड़ी शहर की लम्बी चौड़ी सड़कों पर पड़ा कूड़ा चुनने को उठ जाता है, इस उम्मीद में कि कहीं किसी का झूठा उसके हिस्से का हो तो उसके दिन भर की भूख मिट सके।
आज दुनिया भर में 215 मिलियन ऐसे बच्चे हैं जिनकी उम्र 14 वर्ष से कम है। और इन बच्चों का समय स्कूल में कॉपी-किताबों और दोस्तों के बीच नहीं बल्कि होटलों, घरों, उद्योगों में बर्तनों, झाड़ू-पोंछे और औजारों के बीच बीतता है।
भारत में यह स्थिति बहुत ही भयावह हो चली है। दुनिया में सबसे ज्यादा बाल मजदूर भारत में ही हैं। 1991 की जनगणना के हिसाब से बाल मजदूरों का आंकड़ा 11.3 मिलियन था। 2001 में यह आंकड़ा बढ़कर 12.7 मिलियन पहुंच गया।
इन्हीं आंकड़ों के बीच मटमैले से कपड़ों के नीचे उनकी पाक रूह की चमक कोई नही देखता। मासूम आँखों के पीछे की रोज़ आंसूओ को रोकने की जिरह कोई नही देखता।
बात सिर्फ बाल मजदूरी तक ही सीमित नहीं है इसके साथ ही बच्चों को कई घिनौने कुकृत्यों का भी सामना करना पड़ता है। जिनका बच्चों के मासूम मन पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है। एक एनजीओ के अनुसार 50.2 प्रतिशत ऐसे बच्चे हैं जो सप्ताह के सातों दिन काम करते हैं। 53.22 प्रतिशत यौन प्रताड़ना के शिकार हो रहे हैं। इनमें से हर दूसरे बच्चे को किसी न किसी तरह भावनात्मक रूप से प्रताड़ित किया जा रहा है। 50 प्रतिशत बच्चे शारीरिक प्रताड़ना के शिकार हो रहे हैं।
आप ही सोचिये उन भीख मांगते बच्चों का आप अपनी नज़रों में क्या भविष्य देखते हैं? आप भी तो उनसे नज़रे इस तरह फेर देते हैं जैसे कि वो बस आपसे कुछ पैसो की मांग करने के लिए ही पैदा हुए हैं।
भारत में बाल मजदूरों की इतनी अधिक संख्या होने का मुख्य कारण सिर्फ और सिर्फ गरीबी है। यहां एक तरफ तो ऐसे बच्चों का समूह है बड़े-बड़े मंहगे होटलों में 56 भोग का आनंद उठाता है और दूसरी तरफ ऐसे बच्चों का समूह है जो गरीब हैं, अनाथ हैं, जिन्हें पेटभर खाना भी नसीब नहीं होता। दूसरों की जूठनों के सहारे वे अपना जीवनयापन करते हैं।
जब यही बच्चे दो वक्त की रोटी कमाना चाहते हैं तब इन्हें बाल मजदूर का हवाला देकर कई जगह काम ही नहीं दिया जाता। आखिर ये बच्चे क्या करें, कहां जाएं ताकि इनकी समस्या का समाधान हो सके। सरकार ने बाल मजदूरी के खिलाफ कानून तो बना दिए। इसे एक अपराध भी घोषित कर दिया लेकिन क्या इन बच्चों की कभी गंभीरता से सुध ली?
बाल मजदूरी को जड़ से खत्म करने के लिए जरूरी है गरीबी को खत्म करना। इन बच्चों के लिए दो वक्त का खाना मुहैया कराना। इसके लिए सरकार को कुछ ठोस कदम उठाने होंगे। सिर्फ सरकार ही नहीं आम जनता की भी इसमें सहभागिता जरूरी है। हर एक व्यक्ति जो आर्थिक रूप से सक्षम हो अगर ऐसे एक बच्चे की भी जिम्मेदारी लेने लगे तो सारा परिदृश्य ही बदल जाएगा।