हमने बहुत से घुमन्तु लोगों की यात्राओं को तस्वीरों के जरिये पहले भी देखा है लेकिन विनीत फुलारा की ये यूपी यात्रा बहुत ही अकल्पनीय है। यहाँ वर्णन है इतिहास का, प्रेम का, सलीम अनारकली का। चलिए अब पढ़ते हैं उनकी यात्रा का ये चौथा भाग, वरना हम भी सलीम अनारकली की प्रेमलीला में डूब जायेंगे-
चटख धूप में सफर हो रहा था, ग्वालियर पहुँचते ही वहाँ के किले की तरफ को रुख किया। और हमने वहाँ पर घूमने के लिए खुद को 1 बजे से 3 बजे तक का समय दिया, तय हुवा की 3 बजे आगे को प्रस्थान करेंगे। ग्वालियर का किला गोपांचल नामक छोटी पहाड़ी पर स्थित है और तीन वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुवा है जिसकी ऊंचाई पैंतीस फ़ीट है। यह किला राजा मान सिंह तोमर ने पंद्रहवीं शताब्दी में तैयार करवाया था बल। बहुत बड़ी एरिया में फैले इस किले के प्रवेश द्वार से पहले रोड की दायीं तरफ की चट्टानों में जैन तीर्थांकर की आकृतियां उकेरी गई हैं जो बेहद अद्भुत हैं। किला परिसर के अंदर ही एक आवासीय स्कूल वर्तमान में संचालित है। एक गुरुद्वारा है और दूरदर्शन का रिले केंद्र भी है जिसका काफी ऊँचा टावर ट्रेन से आते जाते शहर से काफी दूर से दिखता है और मेरा ध्यान हमेशा से आकर्षित करता रहा है।
किले के अंदर एक म्यूजियम भी है जिसमें आस पास के क्षेत्रों से खुदाई में मिली हुई प्राचीन और दुर्लभ मूर्तियां और अश्त्र शस्त्र आदि हैं, अधिकतर मूर्तिया ग्वालियर के पास के कस्बे मुरैना और भिंड में पाई गई हैं। म्यूजियम के बाद हम लोग किले में निकले पैदल भ्रमण पर। अंदर बहुत सारे महल हैं अलग अलग राजाओं के नाम पर । शाहजहां महल, जहांगीर महल आदि आदि। किले में पर्यटकों के अलावा प्रेम में डूबे, असीमित कभी न खत्म होने वाली बातों में, अपनी निराली दुनिया में खोए सलीम अनारकली, किले के किसी बुर्ज में बैठे हुवे आसानी से देखे जा सकते हैं, कुछ तो अपने विद्यालय के ही गणवेश धारण किये प्रकट रहे वहाँ।
चमगादड़ों का और वो भयंकर चुरेन बदबू का प्रकोप यहां भी रहा लेकिन झांसी की अपेक्षा कम था। तीन बजने वाले थे और हम निकल पड़े आगरा की तरफ। अगला बड़ा कस्बा मुरैना था। मैंने अनुमान लगाया कि अपने हल्द्वानी में जाड़ों के दिनों में दिसम्बर तक्यान गजक की दुकानें जो कालाढूंगी रोड पर लग जाती हैं ज्यादातर में लिखा होता है मुरैना गजक भंडार, तो शायद मुरैना की गजक भी फेमस होती होगी, पर आजकल तो गर्मी के दिन हैं। लेकिन मुरैना पहुँचने पर सड़क के दोनों तरफ भयंकर बीहड़ फैले हुवे थे, कहीं पर बोर्ड में चम्बल क्षेत्र भी लिखा देखा। समझ आया की ये दस्यु सुंदरी फूलन देवी का रहा क्षेत्र है, शायद सुल्ताना का भी।
ऊँचे ऊँचे बीहड़ और बबूल की झाड़िया। काफी खौफनाक था दाज्यू! दिन में भी डर लगरी थी यार। दूर एक टूटा फूटा किला और उसकी चारदीवारी के अवशेष दिख रहे थे। बरसातों में कालाढूंगी से कोटाबाग को चलने पर जंगलों में जैसी दीमक की मिटटी की बाबियाँ दिखती हैं टीलेनुमा बस उसी का बड़ा रूप और बहुत फैला हुवा,कुछ ऐसा लग रहा था वो बीहड़। दिन का खाना बहुत देर में हो पाया धौलपुर राजस्थान में। बहुत छोटा सा हिस्सा धौलपुर के रूप में राजस्थान का भी पड़ता है आगरा जाते हुवे। शाम 6 बज गया था आगरा पहुँचते।
ट्रिप-एडवाइजर डॉट कॉम में नजदीकी होटल/लाज सर्च करने पर शान्ति लाज मिल गया। चौरसिया जी ने अच्छा मेन्टेन किया है। और ये जगह ताजमहल के साउथ गेट से सौ मीटर दूर है बस। कमरे पर सामान रखकर टहलने निकले। वहां पर अधिकतर व्यवसाय पर्यटन ही है, लोगों ने अपने घरों को अच्छी तरह व्यवस्थित बनाकर कमरों को गेस्ट हाउस का रूप दिया है और वहाँ पर रूफ-टॉप रेस्टोरेंट परंपरा विकसित है। सबसे ऊपर की मंजिल पर किचेन और डाइनिंग टेबल्स हैं।
हम जहां ठहरे थे बहुत सारे विदेशी शोध छात्र छात्राएं भी उस जगह ठहरे हुवे थे। रात को छत से खाना खाते हुवे बहुत नजदीक से ताज को निहारने का मौक़ा मिला और डकार में “वाह ताज” खुद ही निकल पड़ा मुँह से।
आगरा में यह बहुत अच्छा लगा की सारे ही मॉन्यूमेंट्स सुबह छह बजे खुल जाते थे। जल्दी उठकर ताज का टिकट लेकर अंदर घूम आये। सुबह लेकिन एक ही गेट खुला रहता है, हमारी तरफ वाला साउथ गेट देर में खुलता था। ताजमहल के बाद लालकिला गये। गाइड पीछे लग रहे थे, हमने नहीं लिया, लेकिन अंदर जाकर इतिहास जानने की जिज्ञासा हिलोरे मारने लगी तो हम एक बंगाली ग्रुप के पीछे पीछे हो लिए जिसे एक गाइड हिस्ट्री बताते हुवे चल रहा था। वो झरोखा देखा जहां पर शाहजहां को औरंगजेब ने कैद किया हुवा था और शाहजहां ताजमहल को निहारा करता था जहां से।
गाइड ने बताया कि किस तरह से उस समय गर्मी से बचने के लिए महल में कुछ जगह पर दीवारों को खोखला बना कर दीवार की दो लेयर के बीच पानी छोड़ा जाता था जो आज के कूलर की तरह काम करता था। किले के चारों तरफ दो सुरक्षा घेरे थे। एक में मगरमच्छ और दुसरे में शेर चीते रखे जाते थे बल दुश्मनों से किले की बचाने के लिए। भव्य था कुल मिलाकर। कमरे को लौटते हुवे पूरी भाजी का नाश्ता किया, जलेबी खाई सुबह सुबह की और कमरा छोड़कर निकल गए दिल्ली के लिए।
यमुना एक्सप्रेस हाइवे पर चलकर सीधे दिल्ली पहुँच जाने का बहुत मन था लेकिन बाइक पर पीछे बैठे साथी की मंशा का भी ख्याल रखना था, रूट मैप के हिसाब से मथुरा वृंदावन भी जाना था। मेरा देखा हुवा था पहले से, इस बार इच्छा नहीं थी पर यमुना-एक्सप्रेस-वे छोड़कर मथुरा की तरफ निकल गए। रास्ते में बहुत तेज बारिश थी। एक घण्टा एक पेट्रोल पंप की छत के नीचे रुकना पड़ा। मथुरा पहुंचकर चलते चलते उसको श्री कृष्णभूमि दिखाई। पेड़े खिलाये और वृंदावन होते हुवे दिल्ली को निकल आये। मथुरा वृंदावन में कुछ जगह छोड़कर बाकी जगह में कुछ समझ ही नहीं आता की कौन सा ओरिजिनल मंदिर है और कौन सा डुप्लीकेट। होटल है या मंदिर, मंदिर है या होटल बहुत कन्फ्यूजन है।
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