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ये ‘फेसबुक’ है सब जानते हैं

अक्टूबर 5, 2016 ओये बांगड़ू

कबीरा तेरे फेसबुक में भांति-भांति के लोग और उन लोगों से मिलकर आने वाले राहुल मिश्रा आपको ऐसे ही लोगों के बारे में बता रहे हैं-

कुछ साल पहले की ही बात है जब फेसबुक छोटा बच्चा हुआ करता था, और मैं भी! इसी कारण फेसबुक को कोई जाने ना था, और मुझे तो खैर अब भी कोई नहीं जनता! इसी बीच मैं भी थोडा बड़ा हुआ और फेसबुक भी, मैं छोटे से शहर फ़िरोज़ाबाद से निकल कर अलीगढ और फिर अलीगढ से निकल कर दिल्ली पहुंचा तो साथ ही साथ फेसबुक भी कैलिफोर्नियां से निकल कर पूरे विश्व के प्राणियों में विचरने लगा। इस सब के बीच लगभग दो या 3 वर्ष का समय ही लगा होगा? हाँ शायद दो या तीन वर्ष ही!

मैंने इन दो-तीन वर्षों में जाना-पहचाना है कि फेसबुक पर कई तरह के प्राणी विचरते हैं। सच्चे मन के विद्वान और भांति-भांति के लंपट। विद्वान यहां रोजाना बने रहने के लिए अपने शब्दों की जादूगरी से ललचाते-रिझाते हैं और लंपट तत्व तरह तरह की खुराफातों में व्यस्त रहते हैं।

और तो और भारत के पढ़ लिख कर बनराए हुए फेसबुकिया बुद्धिजीवियों की समस्या ये भी है कि उन्हें हर चीज में समस्या दिखती है। समस्या दिखने तक तो ठीक है। उसपर चटपटे कमेंट लिखने तक भी ठीक है लेकिन कोई भी चाहे झंडाधारी भक्त हों, या किसी ढाबे पर दो-दो रूपये माँग कर गाँजा पीने वाला समाजवादी, साला सॉल्यूशन कोई नहीं बताता।

ऐसे भी फेसबुक प्राणी हैं जो आह-आह, वाह-वाह के शब्दजाल से लैस ऐसे तत्वों की नज़र स्त्रियों पर रहती हैं। खोखली पंक्तियों पर भी वे दिल खोलकर वाहवाही लुटाते फिरते हैं। वह कोई पोस्ट पढ़ें-न-पढ़ें, खासकर स्त्रियों के सीधे चैट बॉक्स में घुसकर नाना प्रकार के लंपट-संवाद कर गुजरने के लिए प्रयासरत होते हैं, बार बार फोन नंबर और पता मांगते हैं… गुड मॉर्निंग से, गुड नाइट तक… हलो-हाय से लव यू तक।

लड़कीबाजी की छोड़ दो तब भी फेसबुक पर गरीबी की बात करने वाले महानुभावों की भी कमी नहीं है। हम ना तो अर्थशास्त्र के ज्ञाता हैं ना ही हमें देश की ग़रीबी दिखती है। देश ग़रीब इसीलिए हैं क्योंकि वो ग़रीब हैं। ये स्टेटमेंट भी किसी बड़े आदमी का है और ऐसे स्टेटमेंट हमें बड़े अच्छे लगते हैं। बिलकुल वैसे ही जैसे ये कह देना कि फ़लाँ पॉलिसी ग़रीबों के हित में नहीं है। लेकिन ना तो कोई ग़रीब को जानता है, ना पॉलिसी को और हित की चिंता तो भैय्या ऐसी है कि दो रुपिया कटोरे में डाल दिये तो समझते हैं कि ग़रीबी मिटा दी।

एक जनाब तो, जो देश के एक महानगर में विराजते हैं, अपनी फ्रेंड लिस्ट की कई कई स्त्रियों के कन्हैया बन चुके हैं। अपने महानगर में उन स्त्रियों को घूमने-फिरने के लिए आमंत्रित करते रहते हैं। उनके लिए होटल बुक कराना, वाहन उपलब्ध कराना, उनके फोन रिचार्ज कराना-घुमाना, मौज-मस्ती करना उनका शौक होता है। ये बहुंरगी कर्मकांड वह अपने पत्नी-बच्चों से छिप-छिपाकर करते हैं। एक जनाब लड़कियों के फोन रिचार्ज

ऐसे और भी कई महापुरुष यहां दिन-रात एक किए हुए हैं। खुली-खाटी बात कहें तो ‘फेसबुक’ थूथन वाले ऐसे छुपेरुस्तम फ़ेसबुकिया लोगों के लिए ‘कोठा’ है।

ऐसे ही बहुरंगी लोगों में से कुछ लोग फेसबुक पर सिर्फ लेख लिखकर भी ग़रीबी मिटा देते हैं। ऐसे लेखकों को नीति आयोग में डालना चाहिए। थोड़ा इकॉनामिक्स हम भी पढ़े थे। गँजेरी अर्थशास्त्रियों और लेख से ग़रीबी दूर करने वाले विचारकों के लिए मेरे पास कोई ज्ञान नहीं है।

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